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________________ } [ श्रावकध मध्यमरूपसे छट्टा भाग, कमसे कम दसवाँ भाग खर्च करे उसको शक्ति अनुसार कहा गया है । देखिये, यह किसी प्रकार कोई परके लिये करनेकी बात नहीं, परन्तु आत्माके मान सहित परिग्रहकी ममता घटाने की बात है । नये नये महोत्सबके प्रसंग तैयार करके श्रावक अपने धर्मका उत्साह बढ़ाता जाता है और पापभाव घटाता जाता है । उम प्रसंगोंमें मुनिराजको अथवा धर्मात्माको अपने आँगनमें पधराकर भक्तिसे आहारदान करना उसका प्रधान कर्तव्य कहा गया है क्योंकि उसमें अपने धर्मके स्मरणका और धर्मकी भावनाकी पुष्टिका सीधा निमित्त है। मुनिराज इत्यादि धर्मात्माको देखते ही स्वयंके रत्नत्रयधर्मकी भावना तीव्र होजाती है । कोई कहे कि हमारे पास बहुत सम्पत्ति नहीं; तो कहते हैं कि भाई, कम पूँजी हो तो कम ही वापर । तुझे तेरे भोग-विलासके लिये लक्ष्मी मिलती है और धर्म-प्रभावनाका प्रसंग आता है वहाँ तू हाथ खींच लेता है, तो तेरे प्रेमकी दिशा धर्मकी तरफ नहीं परन्तु संसार तरफ है । धर्मके वास्तविक प्रेमवाला धर्मप्रसंगमें छिपता नहीं । भाई, लक्ष्मीकी ममता तो तुझे केवल पापबन्धका कारण है: स्त्री-पुत्रके लिये या शरीरके लिये तू जो लक्ष्मी खर्च करेगा वह तो तुझे मात्र पापबन्धका ही कारण होगी । और वीतरागी देव-गुरु-धर्म-शास्त्र- जिनमंदिर आदिमें जो तेरी लक्ष्मीका सदुपयोग करेगा वह पुण्यका कारण होगी और उसमें तेरे धर्मके संस्कार भी दृढ़ होंगे । इसलिये संसारके निमित्त और धर्मके निमित्त इन दोनोंका विवेक कर । धर्मात्मा rreesो तो सहज ही यह विवेक होता है और उसे सुपात्रदानका भाव होता है । जैसे रिश्तेदारको प्रेमसे आदरसे जिमाता है उसी प्रकार, सच्चा सम्बन्ध साधसे है । साधर्मी - धर्मात्माओंको प्रेमसे- बहुमानसे घर बुलाकर जिमाता है, ऐसे दानके भावको संसारसे तिरनेका कारण कहा, क्योंकि मुनिके या धर्मात्माके अन्तर के ज्ञानादिकी पहचान वह संसारसे निरनेका सेतु होता है। सच्ची पहचानपूर्वक दानकी यह बात है । सम्यग्दर्शन बिना अकेले दानके शुभपरिणामले भवका अन्त हो जाय -पैसा नहीं बनता । यहाँ तो सम्यग्दर्शनपूर्वक श्रावकको दानके भाव होते हैं इसकी मुख्यता है । अब इस दान के चार प्रकार हैं-आहारदान, औषधदान, ज्ञानदान और अभयदान -इनका वर्णन करते हैं।
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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