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________________ [ ३५ भावकधर्म-प्रकाश j सारखी" क्योंकि धर्मीको सर्वशका स्वरूप अपने शानमें भास गया है, इसलिये जिनबिम्बको देखते ही उसे उसका स्मरण हो जाता है। नियमसार टीकामें श्री पद्मप्रभमलधारि मुनिराज कहते हैं कि जिसे भषभयरहित ऐसे भगवानके प्रति भक्ति नहीं वह जीव भवसमुद्र के बीच मगरके मुंहमें पड़ा हुआ है। जिस प्रकार संसारके रागी प्राणीको युवा स्त्रीका विरह खटकता है और उसके समाचार मिलते प्रसन्न होता है, उसो प्रकार धर्मके प्रेमी जीवको सर्वक्ष परमात्माका विरह खटकता है, और उनकी प्रतिमाका दर्शन करते या संतों द्वारा उनका सन्देह सुनते (शास्त्रका श्रवण करते ) उसे परमात्माके प्रति भक्तिका उल्लास आता है। "अहो मेरे नाथ ! तनसेमनसे-धनसे-सर्यस्वरूपसे आपके लिये क्या करूँ !" ये पद्मनन्दी स्वामी ही श्रावकके छह कर्तव्य बताते हैं; "उपासक संस्कार में कहते हैं कि जो मनुष्य जिनेन्द्र भगवानको भक्तिसे नहीं देखता तथा उनकी पूजा-स्तुति नहीं करता उसका जीवन निष्फल है और उसके गृहस्थाश्रमको धिक्कार है ! मुनि इससे ज्यादा क्या कहे? इसलिये भव्य जीवोंको प्रातः उठकर सर्वप्रथम देव-गुरुके दर्शन तथा भक्तिसे चन्दन और शास्त्र-श्रवण कर्तव्य है, अन्य कार्य पीछे करना चाहिये । (गाथा-१५-१६-१७ । ) प्रभो ! आपको पहचाने बिना मेरा अनन्तकाल निष्फल गया, परन्तु अब मैंने आपको पहचान लिया है, मैंने आपके प्रसादसे आपके जैसा मेरा आत्मा पहचान लिया है, आपकी कृपासे मुझे मोक्षमार्ग मिला और अब मेरा जन्म-मरणका अन्त आ गया । ऐना धर्मी जीवको देव-गुरुके प्रति भक्तिका प्रमोद आता है। श्रावकको सम्यग्दर्शकके साथ ऐसे भाव होते हैं। इसमें जितना राग है उतना पुण्य है, राग बिना जितनी शुद्धि है उतना धर्म है। __ भावक जिनपूजाकी तरह हमेशा गुरुकी उपासना तथा हमेशा शालका स्वाध्याय करे । समस्त तत्त्वोंका निर्दोष स्वरूप जिससे दिखे ऐसा ज्ञाननेत्र गुरुओंके प्रसादसे ही प्राप्त होता है । जो जीव निर्ग्रन्थ गुरुओंको मानता नहीं, उनका पहचान और उपासना करता नहीं, उसको तो सूर्य उगे हुए भी अन्धकार है। इसीप्रकार वीतरागी गुरुओंके द्वारा प्रकाशित सत्शास्त्रोंका जो अभ्यास नहीं करता उसको नेत्र होते हुए भी विद्वान लोग अन्धा कहते हैं। विकथा पढ़ा करे और शास्त्रस्वाध्याय न करे-उसके नेत्र किस कामके ! श्रीगुरुके पास रहकर जो शान नहीं सुनता और रदयमें धारण नहीं करता उस मनुष्यके कान तथा मन नहीं है-ऐसा कहा है। (उपासक-संस्कार गाथा १८ से २१)
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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