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________________ भावकधर्म-प्रकाश ] भूतार्थके आश्रित श्रावकको दो कषायोंके अभाव जितनी शुद्धि है और मुनिको तीन कषायोंके अभाव जितनी शुद्धि है, जितनी शुद्धता उतना निश्चयधर्म है, स्वरूपाचरणरूप स्वसमय है और उतना मोक्षमार्ग है, और उस भूमिकामें देवपूजा आदिका या पंचमहावतादिका जो शुभराग है वह व्यवहारधर्म है, यह मोक्षका कारण नहीं परन्तु पुण्यास्रवका कारण है। -इसप्रकार शुद्धता और रागके मध्यका मेव पहचानना चाहिये। सम्यक्त्वरूप भावशुद्धिके बिना मात्र शुभ या अशुभभाव तो अनादिसे सब जीवोंमें हुआ ही करते हैं; उस अकेले शुभको वास्तविक व्यवहार नहीं कहते। निश्चय बिना व्यवहार कैसा ? निश्चयपूर्वक जो शुभरागरूप व्यवहार है पर भी कोई वास्तविक धर्म नहीं: तो फिर निश्चय बिना अकेले शुभरागकी क्या बात ! -घह तो व्यवहारधर्म भी वास्तव में नहीं कहलाता। ___सम्यग्दर्शन होते शुद्धता प्रगट होती है और धर्म प्रगट होता है। धर्मीको रागमें एकत्वबुद्धि न होते हुए भी देवपूजा, गुरुभक्ति, शास्वाध्याय आदि सम्बन्धी शुभराग उसे होता है, वह उस रागका कर्ता है ऐसा भी व्यवहारमें कहा जाना है, और उसे व्यवहारधर्म कहा जाता है। निश्चयधर्म तो अन्तरंगमें भूनाथस्वभावके आश्रयसे शुद्धि प्रगट हुई वही है। अरे, वीतरागमार्गकी अगम्य लीला रागके द्वारा ज्ञान में नहीं आती, क्या रागमें स्थित रहकर तुझे वीतरागमार्गकी साधना करना है? राग द्वारा वीतरागमार्गका साधन कभी नहीं हो सकता । राग द्वारा धर्म माने ऐसे जीवकी तो यहाँ चर्चा नहीं । यहाँ तो जिसने भूतार्यस्वभावकी दृष्टिसे सम्यग्दर्शन प्रगट किया है उसे आगे बढ़ते मुनिधर्म या श्रावकधर्मका पालन किस प्रकार होता है उसकी चर्चा है। ___ सम्यग्दर्शन हुआ उसी समय स्वसंवेदनमें अतीन्द्रिय आनन्दका स्वाद तो माया है, तत्पश्चात् मुनिपने में तो उस अतीन्द्रिय आनन्दका प्रचुर स्वसंवेदन होता है। अहो! मुनियोंको तो शुखात्माके स्वसंवेदनमें मानन्दकी प्रचुरता है। समयसारकी पांचवीं गाथामें अपने निज वैभवका वर्णन करते हुए श्री आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि "अनवरत झरते हुए सुपर मानन्धकी मुद्रा पाला जो तीन संवेदन उसरूप स्वसंवेदनसे हमारा निज वैभव प्रगट हुआ है। स्वयंको निःशंक अनुभयमें बावा है कि ऐसा आन्मवैभव प्रगट हुआ है । देखो, यह मुनिश्शा! मुनिपना यह तो संवरतत्वको उत्कृष्टता है। जिसे ऐसी मुनिदशाको पहचान नहीं उसे संवरतस्वकी पाचान नहीं। शरीरमें दिगम्बपना हुआ या पंचमहाप्रसका शुगराग हुआ
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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