SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ असकर्म प्रकाश ] भी पानंदीस्वामीने श्रावकके हमेशाके छह कर्तव्य बताए है देवपूजा गुरुपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिनेदिने ॥ ७ ॥ (पद्मनंदी-उपासकसंस्कार) भगवान जिनेन्द्रदेवकी पूजा, निग्रंथ गुरुओंकी उपासना, वीतरागी जैनशानीका स्वाध्याय, संयम, तप और दान-ये छह कार्य गृहस्थ श्रावकको प्रतिदिन करने योग्य है । मुनिपना न होसके तो दृष्टिकी शुद्धतापूर्वक इन छह कर्तव्यों द्वारा भावकधर्मका पालन तो अवश्य करना चाहिए । भाई, ऐसा अमूल्य मनुष्य-जीवन प्राप्त कर यों ही चला जावे, उसमें तू सर्वदेवकी पहचान न करे, सम्यग्दर्शनका सेवन न करे, शास्त्रस्वाध्याय न करे, धर्मात्माकी सेवा न करे और कषायोंकी मन्दता न करे तो इस जीवनमें तूने क्या किया ? आत्माको भूलकर संसारमें भटकते अनन्तकाल बीत गया, उसमें महा मूल्यवान यह मनुष्यभव और धर्मका ऐसा दुर्लभ योग मिला, तो अब परमात्माके समान हो तेरा स्वभाव उसे दृष्टिमें लेकर मोक्षका साधन कर। यह शरीर और ये संयोग तो क्षणभंगुर हैं, इनमें तो कहीं सुखकी छाया भी नहीं है। सुखियोंमें पूर्ण सुखी तो सर्वेश परमात्मा हैं, दूसरे सुस्त्री मुनिवर हैं-जो आनन्दकी ऊर्मिपूर्वक सर्वपदको साध रहे हैं। और तीसरे सुखी सम्यग्दृष्टि-धर्मात्मा हैं जिन्होंने चैतन्यके परमानन्द स्वभावको प्रतीतिमें लिया और उसका स्वाद चखा है। ऐसे सुखका मभिलाषी जीष प्रथम सम्यग्दर्शन प्रगट करके मुनिधर्मका या धावकधर्मका पालन करता है, उसका यह उपदेश है। संसार-परिभ्रमणमें जीवको प्रथम तो निगोदादि एकेन्द्रियमेंसे निकलकर असपना पाना बहुत दुर्लभ है, प्रसपनामें भी पंचेन्द्रियपना और मनुष्यपना प्राप्त करना दुर्लभ है दुर्लभ होते हुवे भी जीव अनन्तबार उसे प्राप्त कर चुका है परन्तु सम्यग्दर्शन उसने कभी प्राप्त नहीं किया ! इसलिये मुनिराज कहते हैं कि हे भव्य जीव ! इस दुर्लभ मनुष्यपनेमें तू सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति करके शुखोपयोगरूप मुनिर्मकी उपासना कर; और इतना न बन सके तो धावकधर्मका पालन कर। देखो, यहाँ यह भी कहा है कि जो मुनिफ्ना न हो सके तो भावकधर्म पाळला, परन्तु मुनिपनेका स्वरूप अन्यथा नहीं मानना। शुखोपयोगके बिना मान कामको
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy