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________________ भाषकधर्म-प्रकाश । २१ कुन्दकुन्द स्वामीने अष्टप्राभृतमें शुरूमें ही कहा है कि- "दसणमूलो धम्मो उबाटो जिणवरेहिं सिस्साणं" अर्थात् जिनवरदेवने " दर्शन जिसका मूल है ऐसा धर्म" शिष्योंको उपदेशा है। मूल बिना जैसे वृक्ष नहीं: तैसे सम्यग्दर्शन बिना धर्म नहीं । बौदह गुणस्थानोंमें, सम्यग्दर्शन चौथे गुणस्थानमें होता है और व्रत पांचवें गुणस्थानमें होते हैं, मुनिदशा छठे-सातवें गुणस्थानमें होती है । सम्यग्दर्शन बिना मात्र शुभरागसे अपनेको पाँचषां-छठा गुणस्थान अथवा धर्म माने या मोक्षमार्ग माम ले तो उसमें मिथ्यात्वका पोषण होता है; मोक्षमार्गके क्रमकी उसे खबर नहीं । मोक्षमार्गमें पहले सम्यग्दर्शन है, उसके बिना धर्मका प्रारम्भ नहीं होता, उसके बिना भाषकपना या मनिपना सधा होता नहीं । अरे जीव ! धर्मका स्वरूप क्या है और मोक्षमार्गका क्रम क्या है उसे पहले जान । सम्यग्दर्शनके बिना पुण्य तूने अनन्तबार किया तो भी तू संसारमें ही भटका और तूने दुःख ही भोगे । अतः समझ ले कि पुण्य कोई मोक्षका साधन नहीं है। मोक्षका बीज तो सम्यग्दर्शन है। वह सम्यग्दर्शन कैसे होता है ? रागादि अशुद्धता विना आत्माका शुख भूतार्थ स्वभाव क्या है उसकी अनुभूतिसे ही आत्मा सम्यग्दृष्टि होता है। जिस समयसे सम्यग्दृष्टि होता है उसी समयसे ही मोक्षमार्गी होता है। पश्चात् इसी भूतार्थ स्वभावके अवलम्बनमें आगे बढ़ते-बढ़ते शुद्धि अनुसार पांचवां-सातवाँ इत्यादि गुणस्थान प्रगट होते हैं। चौथेको अपेक्षा पांचवें गुणस्थानमें स्वभावका विशेष अवलम्बन है, यहाँ अप्रत्याख्यान सम्बन्धी चारों कषायें भी छूट गई हैं और वीतरागी आनन्द बढ़ गया है। सर्वार्थसिद्धिके देवकी अपेक्षा पंचम गुणस्थानवर्ती मेदकको आत्माका मानन्द अधिक है, परन्तु यह दशा सम्यग्दर्शन पूर्वक ही होती है। अतः सम्यग्दर्शनको प्राप्तिका परम प्रयत्न कर्तव्य है। अरे, चौरासीके अवतारमें सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति बहुत ही दुर्लभ है। सम्यक्त्वी के रागादि परिणाम आते हुए भी उसकी अन्तरको दृष्टिमेंसे शुद्ध स्वभाव कभी भी खिसकता नहीं। यहाँ श्रापकके व्रतरूप शुभभाव करनेका उपदेश दिया जायेगा, तो भी धर्मीकी रष्टिमें रागकी मुख्यता नहीं परन्तु मुख्यता शुद्ध स्वभावकी ही है। रश्मेिं जो स्वभावकी मुख्यता छूटकर रागको मुख्यता हो जावे तो सम्यग्दर्शन भी न रहे। शुद्धस्वभावमें मोक्षदशाको विकसित कर देनेकी ताकात है। जिसने इस शुख स्वभावको प्रतीतिमें लेकर सम्यग्दर्शन प्रगट किया उसने मोक्षका वृक्ष आत्मामें बो दिया, और चौरासीके अवतारका बीज उसने जला दिया। अतः हे मुमुक्षु! तू ऐसे सम्यक्त्वका परम उद्यम कर।
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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