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________________ १८ ] [ श्रावकधर्म-प्रकाश दिखता हो तो भी वह वास्तवमें महादुःखी है, संसारके ही मार्गमें है। बाहरका संयोग कोई वर्तमान धर्मका फल नहीं । धर्मी जीव बाहर से चाहे खाली हो परन्तु अन्तरमें भरे हुए स्वभावकी श्रद्धा, तद्रूप ज्ञान और बलसे वह केवलज्ञानी होगा । और जो जीव संयोगसे भरा हुआ परन्तु स्वभाव - ज्ञानसे शून्य (खाली) है वह सम्यग्दर्शनसे रहित है, वह उल्टी दृष्टिसे संसार में कष्ट उठावेगा; आत्माको स्वभाव से भरा हुआ और संयोगसे खाली माना वह तो उसके फलमें संयोग रहित ऐसे सिद्धपदको प्राप्त करेगा । संयोगले आत्माकी महत्ता नहीं । श्रीमद् राजचन्द्र कहते हैं किलक्ष्मी अने अधिकार वधतां शुं वभ्युं ते तो कहो, शुं कुटुम्बके परिवारथी वधवापणुं अ नय ग्रहो ? वधवापणुं संसारनुं नर देहने हारी जवो, नो विचार नहीं अहो हो ! ओक पळ तमने हवो । अरे, संयोगसे आत्माकी महत्ता मानी यह तो स्वभावको भूल कर इस अनमोल मनुष्यभवको हारने जैसा है, अतः हे भाई ! इस मनुष्यभवको प्राप्त कर आत्माका भान कैसे हो और सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होकर भवभ्रमण कैसे मिटे इसका पुरुषार्थ कर । जगतमें असत् माननेवाले बहुत होवें — उससे क्या और सत्यधर्म समझनेवाले थोड़े ही हों-उससे क्या ? – उससे कोई असत् की कीमत बढ़ जावे और सत्की कीमत घट जावे - ऐसा नहीं । कीड़ीके दल बहुतसे हों और मनुष्य थोड़े हों-उससे कोई कीड़ी की कीमत बढ़ नहीं जाती । जगतमें सिद्ध सदा ही थोड़े और संसारी जीव बहुत हैं उससे सिद्धकी अपेक्षा संसारीकी कीमत क्या बढ़ गई। जैसे अफीमका चाहे बड़ा ढेला होवे तो भी वह कड़वा है, और शक्करकी छोटीसी कणिका हो तो भी वह मीठी है, उसी प्रकार मिथ्यामार्ग में करोड़ों जीव हों तो भी वह मार्ग जहर जैसा है, और सम्यकमार्गमें चाहे थोड़े जीव हों तो भी वह मार्ग अमृत जैसा है । जैसे थाली चाहे सोनेकी हो परन्तु यदि उसमें जहर भरा हो तो वह शोभता नहीं और खानेवालेको मारता है, उसी प्रकार कोई जीव चाहे पुण्यके ठाठके मध्यमें पड़ा हो परन्तु यदि वह मिथ्यात्वरूपी जहर सहित है तो वह शोभता नहीं, वह संसारमें भावमरणसे मर रहा है । परन्तु जिस प्रकार थाली चाहे लोहेकी हो किन्तु जो उसमें अमृत भरा
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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