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________________ भावकधर्म-प्रकाश ] महिमाका गुणगान सुनायें और उसको सुनते हुए मुमुक्षुको भक्तिका उल्लास न होवे ऐसा कैसे बने ? ऐसे सर्पक्षकी पहिचान यह धावकका पहला लक्षण है, मौर यह धर्मका मूल है। जो सर्वशको महीं पहिचानता, जिसे उसके पश्चनोंमें भ्रम है मौर जो विपरीत मार्गको मानता है उसे तो श्रावकपना होता नहीं और शुभभाषका भी ठिकाना नहीं, मिथ्यात्वकी तीव्रताके कारण उसे महापापी अथवा अपात्र कहा है। इसलिये मुमुक्षुको सबसे प्रथम सर्वशदेवकी पहिवान करनी चाहिए। ___ अहो नाथ ! आपने एक समयमें तीनकाल तीनलोकको साक्षात् जाना और विष्यवाणीमें आत्माके सर्वक्षस्वभावको प्रगट किया, आपकी वह वाणी हमने सुनी तो अब आपकी सर्वशतामें अथवा मेरे ज्ञानस्वभाषमें सम्देह नहीं रहा। आत्मामें शक्ति भरी है उसमेंसे सर्पक्षता प्रगट होती है-ऐसी आत्मशक्तिकी जिसे प्रतीति नहीं और बाहरके साधनसे धर्म करना चाहता है यह तो बड़ा अविवेकी है, रष्टिहीन है। ज्ञानस्वभावकी और सर्वशकी श्रद्धा बिना “शास्त्रमें ऐसा लिखा है और उसका अर्थ ऐसा होता है"-ऐसा ज्ञानीके साथ वाद-विवाद करे वह तो आकाशमें उड़ते पक्षियोंको गिननेके लिये आँखों वालेके साथ अंधा होड़ करे-रस प्रकार है। झानस्वभावकी दृष्टि बिना, सर्पज्ञ द्वारा कहं हुए शास्त्रके अर्थको प्रगट करना अशक्य है। अतः पहले ही श्लोफमें सशकी और उसकी वाणीकी पहिचान करने को कहा गया है। सर्वशकी श्रद्धा मोक्षक मण्डपका माणिकस्तंभ है; उस सर्वक्षके अर्थात् मोक्षतरवके गाने गाकर उसकी श्रद्धारूप मांगलिक किया। अब ऐसे सर्पक्षकी पहिचान वाले सम्यग्दृष्टि जीपोंकी विरलता बताकर उसकी महिमा करते हुए दूसरे श्लोकमें कहते हैं कि सम्यग्दृष्टि अकेला हो तो भी इस लोकमें शोभनीक और प्रशंसनीय है। सण मूलो धम्मो
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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