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________________ स्वतंत्रताकी घोषणा ] [१६३ होता है, परन्तु वस्तुस्वरूप ऐसा नहीं है। यहां चार बोलों द्वारा वस्तुका स्वरूप एकदम स्पष्ट किया है। १-परिणाम ही कर्म है। २–परिणामी वस्तुके ही परिणाम है, अन्यके नहीं। ३-वह परिणामरूपी कर्म कर्ताके बिना नहीं होता । ४-वस्तुकी स्थिति एकरूप नहीं रहती। -इसलिये वस्तु स्वयं ही अपने परिणामरूप कर्मकी कर्ता है-यह सिद्धांत है। इन चारों बोलों में तो बहुत रहस्य भर दिया है। उसका निर्णय करनेसे मेदज्ञान तथा द्रव्यसन्मुखदृष्टिसे मोक्षमार्ग प्रगट होगा। प्रश्नः-संयोग आये तदनुसार अवस्था बदलती दिखायी देती है न ? उत्तर:-यह बराबर नहीं है; वस्तुस्वभावको देखनेसे ऐसा दिखायी नहीं देता। अवस्था बदलनेका स्वभाव वस्तुका अपना है-ऐसा दिखायी देता है। कर्मका मंद उदय हो इसलिये मंद राग और तीव्र उदय हो इसलिये तीव्र राग-ऐसा नहीं है। अवस्था एकरूप नहीं रहती परन्तु अपनी याग्यतासे मंद-तीव्ररूपसे बदलती है-पेसा स्वभाव वस्तुका अपना है, वह कहीं परके कारण नहीं है। भगवानके निकट जाकर पूजा करे या शास्त्र-प्रवण करे उस समय अलग परिणाम होते है, और घर पहुँचने पर अलग परिणाम हो जाते है तो क्या संयोगके के परिणाम बदले ? नहीं; वस्तु एकरूप न रहकर उसके परिणाम बदलते रहेंऐसा ही उसका स्वभाव है; उन परिणामोंका बदलना वस्तुके मामयले ही होता है, संयोगके मायसे नहीं। इसप्रकार वस्तु स्वयं अपने परिणामकी कर्ता है-यह निश्वित् सिवान्त है। इन चार बोलोंके सिद्धान्तानुसार वस्तुस्वरूपको समझे तो मिथ्यात्यकी बड़े उखड़ जायें और पराश्रितबुद्धि छूट जाये। पेसे स्वभावकी प्रतीति होनेसे अखंड स्ववस्तु पर लक्ष जाता है और सम्यग्ज्ञान होता है। सम्यग्जामपरिणामका कर्ना मात्मा स्वयं है। पहले अक्षानपरिणाम भी वस्तुके ही माश्रयसे थे और अब सानपरिणाम हुए वे भी वस्तुके ही आश्रयसे हैं। मेरी पर्यायका कर्ता दूसरा कोई नहीं है, मेरा द्रव्य ही परिणमित होकर मेरी पर्यायका कर्ता होता है-पेसा निक्षय करनेसे स्वद्रब्य पर लक्ष जाता है और मेवज्ञान
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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