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________________ स्वतंत्रताको घोषणा (४) वस्तुकी निरन्तर एकसमान स्थिति नहीं रहती, क्योंकि वस्तु म्यपर्यायस्वरूप है। इसप्रकार आत्मा और जड़ सभी वस्तुएँ स्वयं ही अपने परिणामरूप कर्मकी कर्ता है ऐसा वस्तुस्वरूपका महान सिद्धांत आचार्यदेवने समझाया है और उसीका यह प्रवचन है । इस प्रवचनमें अनेक प्रकारसे स्पष्टीकरण करते हुए गुरुदेवने मेदवान को पुनः पुनः समझाया है। देखो, इसमें वस्तुस्वरूपको चार बोलों द्वारा समझाया है। इस जगतमें छह वस्तुएँ है, आत्मा अनन्त है, पुद्गलपरमाणु अनन्त हैं तथा धर्म, अधर्म, भाकाश और काल,-ऐसी छहों प्रकारकी वस्तुएँ और उनके स्वरूपका वास्तविक नियम क्या है? सिद्धान्त क्या है ? उसे यहाँ चार बोलोंमें समझाया जा रहा है: (१) परिणाम ही कर्म है। प्रथम तो 'ननु परिणाम एव किल कर्म विनिश्चयतः' अर्थात् परिणामी पस्तुके जो परिणाम है वही निश्चयसे उसका कर्म है। कर्म अर्थात् कार्य परिणाम अर्थात् अवस्था; पदार्थकी अवस्था ही वास्तवमें उसका कर्म-कार्य है। परिणामी अर्थात् अखण्ड वस्तु; यह जिस भावसे परिणमन करे उसको परिणाम कहते हैं। परिणाम कहो, कार्य कहो, पर्याय कहो या कर्म कहो-वह वस्तुके परिणाम ही हैं। जैसे कि-आत्मा भानगुणस्वरूप है; उसका परिणमन होनेसे माननेकी पर्याय हुई वह उसका कर्म है, वह उसका वर्तमान कार्य है । राग या शरीर पर कोई शानका कार्य नहीं; परन्तु 'यह राग है, यह शरीर है'-ऐसा उन्हें जाननेवाला गो बान है वह आत्माका कार्य है। मात्माके परिणाम वह मात्माका कर्म और जड़के परिणाम अर्थात् जड़की अवस्था वह जड़का कार्य है, सप्रकार एक बोल पूर्ण हुआ। (२) परिणाम वस्तुका ही होता है दूसरेका नहीं। अब, इस दूसरे बोलमें कहते हैं कि-जो परिणाम होता है वह परिणामी पदार्थका ही होता है, परिणाम किसी अन्यके आश्रयसे नहीं होता । जिसप्रकार भवणक समय जो ज्ञान होता है यह शान कार्य है-कर्म है। वह किसीका कार्य है? वह कही शब्दोंका कार्य नहीं है, परन्तु परिणामी वस्तु जो आत्मा है सीका वह कार्य है।
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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