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________________ [भावकधर्म-प्रकाश देखो! यह मनुष्यपनेकी सफलताका उपाय ! जीवनमें जिसने धर्मका उल्लास नहीं किया, आत्महितके लिये रागादि नहीं घटाये और मात्र विषय-भोगके पापभावमें ही जीवन बिताया है वह तो निष्फल अवतार गुमाकर संसारमें ही परिभ्रमण करता है। जबकि धर्मात्मा श्रावक तो आत्महितका उपाय करता है, सम्यकदर्शन सहित व्रतादि पालन करता है और स्वर्गमें जाकर वहाँसे मनुष्य होकर मुनिपना लेकर मुक्ति प्राप्त करता है। भाई, ऐसा उत्तम मनुष्यपना और उसमें भी धर्मात्माके संगका ऐसा योग संसारमें बहुत दुर्लभ है; महाभाग्यसे तुझे ऐसा सुयोग मिला है तो इसमें सर्वशकी पहिचान कर सम्यक्त्वादि गुण प्रगट कर। और उसके पश्चात् शक्तिअनुसार वत अंगीकार कर, दान आदि कर। उस दानका तो बहुत प्रकारका उपदेश दिया । वहाँ कोई कहे कि-बाप दानकी तो बात करते हो, परन्तु हमें आगे-पीछेका (स्त्री-पुत्रादिका) कोई विचार करना या नहीं ? तो कहते हैं कि भाई, तू तनिक धीरज धर! जो तुझे आगे-पोछेका तेरा हितका सञ्चा विचार हो तो अभी ही तू ममता घटा, वर्तमानमें स्त्री-पुत्रादिके बहाने तू ममतामें डूबा हुआ है और अपने भविष्यके हितका विचार नहीं करता। भविष्यमें मैं मर जाऊँगा तो स्त्री-पुत्रादिका क्या होगा-सप्रकार उनका विचार करता है, परन्तु भविष्यमें तेरी आत्माका क्या होगा-इसका विचार क्यों नहीं करता ? अरे, राग तोड़कर समाधि करनेका समय आया उसमें फिर आगे-पीछेका अन्य क्या विचार करना? जगतके जीवोंको संयोग-वियोग तो अपने-अपने उदय अनुसार सबको हुआ करते हैं, ये कोई तेरे किये नहीं होते। इसलिये भाई, दूसरेका नाम लेकर तू अपनी ममताको मत बढ़ा । चाहे लाखों-करोड़ों रुपयोंकी पूँजी हो परन्तु जो दान नहीं करता तो वह हृदयका गरीब है। इसकी अपेक्षा तो थोड़ी पूँजीवाला भी जो धर्म-प्रसंगमें तन-मन-धन उल्लासपूर्वक लगाता है वह उदार है, उसकी लक्ष्मी और उसका जीवन सफल है। सरकारी टेक्स (कर) आदिमें परतंत्ररूपसे देना पड़े उसे देवे परन्तु स्वयं ही धर्मके काममें होशपूर्वक जीव खर्च न करे तो आचार्यदेव कहते हैं कि भाई, तुझे तेरी लक्ष्मीका सदुपयोग करना नहीं आता; तुझे देव-गुरु-धर्मकी भक्ति करते नहीं आती और तुझे श्रावकधर्मका पालन करना नहीं आता, श्रापक तो देव-गुरु-धर्मके लिये उल्लासपूर्वक दानादि करता है। एक मनुष्य कहता है कि महाराज ! मुझे व्यापारमें २५ लाख रुपये मिलने वाले थे, परन्तु रुक गये, जो वे मिल जायें तो उसमेंसे ५ लाख रुपये धर्मार्थ में देने का विचार था; इसलिये आशीर्वाद दीजिये! अरे मूर्ख! कैसा
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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