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________________ भावकधर्म-प्रकाश [ १४३ मानना, ध्येय और साध्य तो 'सम्पूर्ण वीतरागभावरूप' मोक्ष ही है, और वही परम सुख है। धर्मीकी दृष्टि-रुचि रागमें नहीं, उसे तो मोक्षको साधनेकी ही भावना है। सच्चा सुख मोक्षमें ही है। रागमें अथवा पुण्यके फल में कोई सुख नहीं। इसलिये हे भव्य ! व्रत अथवा महावतके पालने में उस-उस प्रकारकी अन्तरंगशुद्धि बढ़ती जाय और मोक्षमार्ग सघता जाय-उसे तू लक्ष्यमें रखना। शुद्धताके साथ-साथ जो व्रत-महाव्रतके परिणाम होते हैं वे मोक्षमार्गके साथ निमित्त है, परन्तु जरा भी शुद्धता जिसे प्रगट नहीं और मात्र रागकी भावनामें ही रुक गया है उसका तो व्रतादि पालन करना भी संसारका कारण होता है और वह दुःख ही प्राप्त करता है। इसप्रकार मोक्षमार्गके यथार्थ व्रत-महावत सम्यग्दृष्टिको ही होते हैं-यह बात इसमें आ गई। बीचमें व्रतके परिणाम आगे इससे पुण्य उच्चकोटिका बंधेगा और देवलोकका अचिन्त्य वैभव मिलेगा। परन्तु हे मोनार्थी ! तुझे इनमें किसीकी रुचि अर्थात् भावना नहीं करनी है। भावना तो मोक्षकी ही करना कि कब यह राग तोड़कर मोक्षदशा प्राप्त हो, क्योंकि मोक्षमें आत्मिकसुख है, स्वर्गके वैभवमें सुख नहीं, वहाँ भी आकुलताके अंगारे हैं। धर्मीको भी स्वर्गमें जितना गग और विषयतृष्णाका भाव है उतना क्लेश है धर्मीको उससे छूटनेकी भावना है ऐसी भावनासे मोक्षके लिये जो व्रत-महाबत पालन करनेमें आवें वे सर्व सफल हैं और इससे विपरीत संसारके स्वर्गादिके सुखकी भावनासे जो कुछ करने में आवे वह दुःखका और भवभ्रमणका कारण है। इसलिये मोक्षार्थी भव्योंको आत्माकी श्रद्धा-बानअनुभव करके वीतरागताको भावनासे शक्तिअनुसार प्रत-महावत करना चाहिये। जैसे, किसीने स्थान जानेका सचा मार्ग जान लिया है परन्तु चलने में थोड़ी देर लगती है तो भी वह मार्गमें ही है, उसी प्रकार धर्मी जीवने वीतरागताका मार्ग देखा है, रागरहित स्वभावको जाना है, परन्तु सर्वथा राग दूर करने में थोड़ा समय लगता है, तो भी वह मोक्षके मार्गमें ही है। परन्तु जिसने सच्चा मार्ग नहीं जाना, विपरीत मार्ग माना है वह शुभराग करे तो भी संसारके मार्गमें है। 'निश्वयसे वीतरागमार्ग ही मोक्षका साधन है, शुमराग वास्तवमें मोक्षका साधन नहीं'-ऐसा कहने पर किसीको बात न रुचे तो कहा है कि भाई, हम अन्य क्या बतावें ! वीतरागदेव द्वारा कहा हुआ सत्यमार्ग ही यह है। जिस प्रकार पमनन्दी स्वामी ब्रह्मचर्य-अष्टकमें ब्रह्मचर्यका उत्तम वर्णन करके अंतमें कहते हैं कि जो मुमुक्षु है उसके लिये स्त्री-संगके निषेधका यह उपदेश मैंने दिया है, परन्तु जो जीव भोगरूपी रागके सागरमें डूबे हुये हैं उन्हें इस ब्रह्मचर्यका उपदेश न रुचे तो वे
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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