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________________ भाषकधर्म-प्रकाश रखकर वहाँ असंख्य वर्षकी आयु पूर्ण होने पर उत्तम मनुप्यकुलमें जन्म लेता है, और योग्य कालमें वैराग्य पाकर मुनि होकर आत्मसाधना पूर्ण करके केवलज्ञानप्रगट करके सिद्धालयमें जाता है। देखो, इस भावकवशाका फल ! श्रावकको मिद भगवान जैसा मास्मिक मानन्दका अंश होता है, और वह एकभवावतारी भी होता है । या उत्कए बात कही। कोई जीव को दो-तीन अथवा अधिकसे अधिक आठ भव भी (माराधकभाव सहितके, मनुष्यके ) होते हैं । परन्तु वह तो मोक्षपुरी में जाते-जाते बीचमें विभाम लेने जितने हैं। देखो, यह प्रावकधर्मके फलमें मोक्षप्राप्ति कहो, अर्थात् यहाँ श्रावकधर्ममें एकमात्र पुण्यकी बात नहीं, परन्तु सम्यक्त्वसहितकी शुद्धतापूर्वकको यह बात है। आत्माके शान बिना सच्चा श्रावकपना नहीं होता, श्रावकपना क्या है इसका भी बहुतोंको ज्ञान नहीं । जैनकुलमें जन्म लेनेसे ही श्रावकपना मान ले, परन्तु ऐसा श्रावकपना नहीं । भावकपना तो आत्माको दशामें है। अपन ता गृहस्थ है इसलिये सी-कुटुम्बको संभाल करना अपना कर्तव्य' है-ऐसा मानी मानता है। परन्तु माई ! तेरा सच्चा कर्तव्य तो अपनी आत्माको सुधारनेका है, जीवनमें यही सच्चा कर्तव्य है, अन्यका कर्तव्य तेरे पर नहीं। अरे, पहले पेसी श्रद्धा तो कर ! प्रसार पश्चात् अल्प रागादि होंगे परन्तु धर्मी उसे कर्तव्य नहीं स्वीकारता इसलिये वे लैंगरे हो जायेंगे, अत्यन्त मन्द हो जायेंगे । जैसे रंग-बिरंगे कपड़ेसे लिपटो सोनेकी लकड़ी वह कोई वस्त्ररूप नहीं होती, उसी प्रकार चित्र-विचित्र परमाणु मोंके समूहसे लिपटी यह चैतन्य-लकड़ो कोई शरीररूप हुई नहीं, भिन्न ही है। आत्माको जहाँ शरीर ही नहीं वहाँ पुत्र मकान आदि कैसे?-यह तो स्पष्टरूपसे बाहर-दूर पड़े हैं। ऐसा मेदवान करना सच्चा विवेक और चतुराई है। बाहरको चतुराई में तो कोई हित नहीं। चतुर उसे कहते हैं जो चैतन्यको चेते, जाने; विवेकी उसे कहते कि है जो स्व-परका विवेक करे अर्थात् भिन्नता जाने; जीव उसे कहते हैं जो बान-आनन्दमय जीवन जीवे; चतुर उसे कहते हैं जो आत्माके जाननेमें अपनी चतुराई खर्च करे ? आत्माके जाननेमें जो मूढ़ रहे उसे चतुर कौन कहे ?-उसे विवेकी कौन कहे! मोर भात्मपान बिना जीने को जीवन कौन कहे ? भाई, मूलभूत वस्तु तो मारमाको पहचान है। तीर्थयात्रामें भी मुस्य हेतु यह है कि तीर्थ में माराधक जीवोंका विशेष स्मरण रोता है तथा कोई सन्त-धर्मास्माका सत्संग मिले । अहिंसा आदि अणुवतका पालन, जिनेन्द्रदेवका दर्शन-पूजन, तीर्थयात्रा आदिसे श्रावकको उत्तम पुण्य संधता है और
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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