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________________ (भावकधर्म-प्रकाश १२४.] ६ इन्द्र जैसे भी देवलोक से उतरकर समवसरणमें आ-आकर तीर्थकर प्रभुके चरणोंकी सेवा करते हैं... हजार हजार आँखसे प्रभुको देखते हैं - तो भी उनकी तृप्ति नहीं होती । अहो, आपकी वीतरागी शान्त मुद्रा देखा ही करें ऐसा लगता है ! गृहस्थकी भूमिकामें ऐसे भावोंसे ऊँची जातिका पुण्य बँधता है, इसे राग तो है, परन्तु रागकी दिशा संसारकी तरफ से हटकर धर्मकी तरफ हो गई है, इसलिये arrrrrrकी भावना खूब घुटती रहती है । अहा, भगवान् स्वरूपमें ठहर गये लगते हैं, तादृष्टापनेसे जगत्को साक्षीरूप देख रहे हों और उपशम-रसकी धाग बरस रही हो-ऐसी भावषाही जिन प्रतिमा होती है । ऐसी निर्विकार वीतराग जिनमुद्राका दर्शन वह अपने वीतरागस्वभावके स्मरणका और ध्यानका निमित्त है । धर्मका ध्येय वीतरागता है। जिसप्रकार चतुर किसान चारेके लिये नहीं बोता परन्तु अनाज हेतु बोता है; अनाजके साथ चारा भी बहुत होता है । उसीप्रकार धर्मीका प्रयत्न वीतरागताके लिये है राग हेतु नहीं । चैतन्यस्वभावकी दृष्टिपूर्वक शुद्धताको साधते - साधते बीचमें पुण्यरूपी ऊँचा घास भी बहुत पकता है । परन्तु इस घासको कोई मनुष्य नहीं खाताः मनुष्य तो अनाज खाता है; उसीप्रकार धर्मी जीव रागको अथवा पुण्यको आदरणीय नहीं मानता है, वीतरागभावको ही आदरणीय मानता है । देखो, इसमें दोनों बातें इकट्ठी हैं, धावककी भूमिकामें राग कैसा होता है और धर्म कैसा होता है- इन दोनोंका स्वरूप इसमें आ जाता है । पुष्टिकर होता है; दुष्कालमें नहीं होती; उसीप्रकार जहाँ शानीको धर्म सहित जो पुण्य होता है वह ऊँची जातिका होता है; अज्ञानीका पुण्य बिना सारवाला होता है, उसकी पर्याय में धर्मका दुष्काल है । जिसप्रकार उत्तम अमाजके साथ नो घास पकता है वह घास भी अनाज बिना अकेला घास पकता है उसमें बहुत पुष्टि धर्मका दुष्काल है वहाँ पुण्य भी हलका होता है, और धर्मकी भूमिका में पुण्य भी ऊँची जातिका होता है । तीर्थकरपना, चक्रवर्तीपना, इन्द्रपना आदिका लोकोत्तर पुण्य धर्मकी भूमिकामें ही बँधता है गृहस्थोंको जिन-मन्दिर जिनबिम्ब बनवानेसे तथा आहारदान आदिले महान पुण्य बँधता है, इसीलिये मुनिराजने उसका उपदेश दिया है। अधिकृत स्क्रूसके आनन्दमें झूलनेवाले संत-प्राण जावें तो भी जो झूठ नहीं बोलें, और इन्द्राणी आकाशसे उत्तर आवे तो भी अशुभवृत्ति जिन्हें नहीं उठे, - ऐसे वीतरागी मुनिका यह कथन है, जगत के पाससे इन्हें एक कण भी नहीं चाहिये,
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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