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________________ भावधर्म-प्रकाश इतना तीन भयोपशम था कि वे अपने महलमेंसे सूर्यमें रहे दुए जिनपिम्पका पर्जन करते थे। उस परसे प्रातः सूर्यदर्शनका रिवाज प्रचलित हो गया। लोग मूल वस्तुको भूल गये और सूर्यको पूजने लगे, शास्त्रोंमें स्थान-स्थान पर जिनप्रतिमाका वर्णन आता है। अरे, स्थानकवासी द्वारा माने हुए आगममें भी जिनप्रतिमाका उल्लेख आता है परन्तु वे उसका अर्थ विपरीत करते हैं! एक बार संवत् १९७८ में मैंने (पूज्य श्री कानजी स्वामीने ) एक पुराने स्थानकवासी साधुसे पूछा कि इन शास्त्रोंमें जिन-प्रतिमाका तो वर्णन आता है, क्योंकि “जिनके शरीर-प्रमाण ऊँचाई" ऐसी उपमा दी है, जो यह प्रतिमा यक्षकी हो तो ऐसी जिनकी उपमा नहीं देते। तब उस स्थानकवासी साधुने यह बात स्वीकार को और कहा कि आपकी बात सत्य है है तो ऐसा ही'। तीर्थकरकी ही प्रतिमा है। परन्तु बाहरमें ऐसा नहीं बोला जाता। तब ऐसा लगा कि अरे, यह क्या ! अन्दर कुछ माने और बाह्यमें दूसरी बात कहेऐसा भगवानका मार्ग नहीं होता। इन जीवोंको आत्माकी दरकार नहीं। भगवानके मार्गकी दरकार नहीं; सत्यके शोधक जीव ऐसे सम्प्रदायमें नहीं रह सकते। जिनमार्गमें वीतराग मूर्तिकी पूजा अनादिसे चली आ रही है, बड़े-बड़े शानी भी उसे पूजते हैं। जिसने मूर्तिका निषेध किया उसने अनन्त शानियोंकी विराधनाकी है। शास्त्रमें तो ऐसी कथा आती है कि जब महावीर भगवान् राजगृहीमें पधारे और श्रेणिक राजा उनकी वंदना करने जाते हैं तब एक मेंढक भी भकिसे मुंडमें फूल लेकर प्रभुकी पूजा करने जाता है; वह राहमें हाथीके पैरके नीचे दबकर मर जाता है और देवपर्यायमें उत्पन्न होकर तुरन्त भगवानके समवसरणमें माता है। धर्मी जीव भगवान्के दर्शन करते हुए साक्षात् भगवान्को याद करता है कि महो, भगवान् ! अहो सीमन्धरनाथ ! आप विदेहक्षेत्रमें हो और मैं यहां भरतक्षेत्रमें है, आपके साक्षात् दर्शनका मुझे घिरा हुआ ! प्रभो, पेसा अवसर कब आवे कि मापका विरह दूर हो, अर्थात् राग-द्वेषका सर्वथा नाश करके माप जैसा वीतराग कर होऊँ ! धर्मी ऐसी भावना द्वारा रागको तोड़ता है। अर्थात् भगवानसे वह क्षेत्र अपेक्षा दूर होते हुए भी भावसे समीप है कि हे नाथ! इस वैभष-विलासमें रखापचा हमारा जोवन यह कोई जीवन नहीं, वास्तविक जीवन तो आपका है; आप केवलज्ञान और अतीन्द्रिय आनन्दमय जीवन जी रहे हो, वही सच्चा जोवन है। प्रभो, हमें भी यही उद्यम करना है। प्रभो, वह घड़ी धन्य है कि जब मैं मुनि होकर आपके जैसा केदलमानका साधन करूँगा ! ऐसा पुरुषार्थ नहीं जागता तबतक धर्मी जीव भावक
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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