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________________ श्रावकधर्म - प्रकाश ] [ १११ हैं। इन पद्मनंदी मुनिराजने इस शास्त्रमें वैराग्य और भक्तिके उपदेशकी रेलमछेल की है, उसीप्रकार निश्चयपंचाशत आदि अधिकारोंमें शुद्धात्मा के अध्यात्मस्वरूपका अध्ययन किया है । कुन्दकुन्दस्वामीका दुसरा नाम पद्मनंदी स्वामी था । परन्तु वे ये पद्मनंदी नहीं थे, ये पद्मनंदी मुनि तो उनके पीछे लगभग हजार वर्ष बाद हुए। वे कहते हैं कि दान करनेवाला उत्तम श्रावक धर्मात्मा चिन्तामणि समान है । 66 संघमें जरूर पड़े अथवा जिनमंदिर नया-बड़ा कराना है । तो श्रावक कहता है ' कितना खर्च ?' कि सवा लाख रुपया । वह तुरन्त कहता है - यह लो, और उत्तम मन्दिर बनवाओ । *** 99 इसप्रकार उदारताले दान देने वाले धर्मात्मा थे। इसके लिये घर घर जाकर चंदा नहीं करना पड़ता था । अपनी शक्ति होते हुए भी धर्मका कार्य रुके वह धर्मी जीव नहीं देख सकता। इसलिये कहते हैं कि धर्मात्मा श्रावक ही उदारतासे मनोवांछित दान देने वाला बिन्तामणि- कल्पवृक्ष और कामधेनु है, जब आवश्यकता पड़े तब देवे । आवश्यकता पड़ने पर दान नहीं देवे तो वह दातार कैसा ? धर्म प्रसंगम आवश्यकता पड़ने पर दाता छिपा नहीं रहता। जिसप्रकार देशके लिये भामाशाहने ( वह जैन था ) अपनी सम्पूर्ण संपत्ति महाराणा प्रतापके पास रख दी, उसी प्रकार धर्मी जीव धर्म के लिये जरूरत पड़ने पर अपना सर्वस्व अर्पण कर दे । दाताको चिन्तामणि आदि भी दान प्रिय है; क्योंकि चिन्तामणि आदि वस्तुएँ जो उपकार करती हैं वह भी पूर्वमें सत्पात्रदान से जो पुण्य बंधा उसके कारणसे है; इसलिये वास्तवमें दातामें ही यह सब समा जाता है-इसप्रकार दाताकी प्रशंसाकी गई। अब जहाँ धर्मात्मा श्रावक रहते हों वहाँ अनेक प्रकारसे धर्मकी प्रवृत्ति चला करती है - यह बताकर उसकी प्रशंसा करते हैं।
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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