SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भापर्व-प्रसाध] बालकको बैन नहीं पड़ता, उसी प्रकार भगवान के दर्शन बिना धर्मात्माको बैन नहीं पड़ता। “अरे रे, आज मुझे परमात्माके दर्शन न हुवे, आज मैंने मेरे भगवानको नहीं देखा, मेरे प्रिय नाथके दर्शन आज मुझे नहीं मिले!" इसप्रकार धर्मीको भगवानके दर्शन बिना चैन नहीं पड़ता। (चेलना रानीको जिस प्रकार श्रेणिकके राज्यमें पहले चैन नहीं पड़ता था: उसी प्रकार । ) अन्तरमें अपने धर्मकी लगन है और पूर्णदशाकी भावना है इसलिये पूर्णदशाको प्राप्त भगवानको मिलने हेतु धकि अन्तरमें तीव्र इच्छा आ गई है: साक्षात तीर्थकरके वियोगमें उनकी वीतराग-प्रतिमाको भी जिनवर समान ही समझकर भक्तिसे दर्शन-पूजन करता है, और वीतरागके प्रति बहुमानके कारण ऐसी भक्ति-स्तुति करता है कि देखनेवालोंके रोम-रोम पुलकित हो जाते हैं। इसप्रकार जिनेन्द्रदेवके दर्शन, मुनिवरोंकी सेवा, शासस्वाध्याय, दानादिमें श्रावक प्रतिदिन लगा रहता है। यहाँ तो मुनिराज कहते हैं कि शक्ति होने पर भी प्रतिदिन जो जिनदेवक दर्शन नहीं करता वह भावक ही नहीं: वह तो पत्थरकी नौकामें बैठकर भवसागरमें डूबता है। तो फिर वीतराग-प्रतिमाके दर्शन-पूजनका जो निषेध करे उसकी तो बात ही क्या करना !-इसमें तो जिनमार्गकी अतिविराधना है। अरे, सर्वक्षको पूर्ण परमात्मदशा प्रगट हो गई वैसी परमात्मदशाका जिसे प्रेम होवे, उसे उनके दर्शनका उल्लास आये बिना कैसे रहे ? वह तो प्रतिदिन भगवानके दर्शन करके अपनी परमात्मदशारूप ध्येयको प्रतिदिन ताजा रखता है। भगवानके दर्शनकी तरह मुनिवरों के प्रति भी धर्मीको परम भक्ति होती है। भरत चक्रवर्ती जैसे महान भी आदरपूर्वक भक्तिसे मुनियोंको आहारदान देते थे, और अपने आँगनमें मुनि पधारें उस समय अपनेको धन्य मानते थे। अहा ! मोक्षमार्गी मुनिके दर्शन भी कहाँ !!-यह तो धन्यभाग्य और धन्य घड़ी! मुनिके विरकालमें बड़े धर्मात्माओंके प्रति भी ऐसा बहुमानका भाव आता है कि अहो, धन्यभाग्य, मेरे आँगनमें धर्मात्माके चरण पड़े ! ऐसे धर्मके उल्लाससे धर्मी धायक मोसमार्गको साधता है; और जिसे धर्मका ऐसा प्रेम नहीं यह संसारमें इखता है। कोई कहे कि मूर्ति तो पाषाण की है !-परन्तु भाई, इसमें शानबलसे परमात्माका निक्षेप किया है कि-" यह परमात्मा है।"-इस निक्षेपका इन्कार करना ज्ञानका ही इन्कार करने जैसा है। जिनबिम्ब-दर्शनको तो सम्यग्दर्शनका निमित्त गिना है, उस निमित्तका भी जो निषेध करे उसे सम्यग्दर्शनका भी बान नहीं। समन्तभद्र स्वामी कहते है कि
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy