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________________ १०४) [श्रावकधर्म-प्रकाश सामर्थ्य होते हुए भी जो गृहस्थ हमेशा परम भक्तिसे जिननाथके दर्शन नहीं करता, अर्चन नहीं करता और स्तवन नहीं करता, उसी प्रकार परम भक्तिसे मुनिराजोंको दान नहीं देता, उसका गृहस्थाश्रमपद पन्थरकी नावके समान है। उस पत्थरकी नौकाके समान गृहम्थपदमें स्थित हुवा वह जीव अत्यन्त भयंकर भवसागरमें इखता है और नष्ट होता है। जिनेन्द्रदेव-सर्वक्षपरमात्माका दर्शन, पूजन उस श्रावकके हमेशाके कर्तव्य हैं। प्रतिदिनके छह कर्नव्योंमें भी सबसे पहला कर्त्तव्य जिनदेवका दर्शन-पूजन है। प्रातःकाल भगवानके दर्शन द्वाग निजके ध्येयरूप इष्टपदको स्मरण करके पश्चात् ही श्रावक दूसरी प्रवृत्ति करे । इसी प्रकार स्वयं भोजनके पूर्व मुनिवरोंको याद करके अहा, कोई सन्त-मुनिराज अथवा धर्मान्मा मेरे आँगनमें पधारें तो भक्तिपूर्वक उन्हें भोजन देकर पश्चात् में भोजन करूँ । इस प्रकार श्रावकके हृदयमें देव-गुरुको भक्तिका प्रवाद बहना चाहिये । जिस घरमें ऐसी देव-गुरुकी भक्ति नहीं वह घर तो पत्थरको नौकाके समान डूबनेवाला है। छठे अधिकारमें ( श्रावकाचार-उपासकसंस्कार गाथा ३५ में ) भी कहा था कि दान बिना गृहस्थाश्रम पत्थरको नौकाके समान है । भाई ! प्रातःकाल उठते ही तुझे वीतराग भगवानकी याद नहीं आती धर्मात्मा-संत-मुनि याद नहीं आते और संसारके अखबार, व्यापार-धंधा अथवा स्त्री मादिकी याद आती है तो तू ही विचार कि तेरी परिणति किस तरफ जा रही है ?-संसार की तरफ या धर्मकी तरफ ? आत्मप्रेमी हो उसका तो जीवन ही मानो देव-गुरुमय हो जाता है। 'हरतां फरतां प्रगट हरि देखुं रे... मारुं जीव्युं सफळ तब लेखु रे...' पंडित बनारसीदासजी कहते है कि जिनप्रतिमा जिनसारखी' जिनप्रतिमामें जिनवरदेवकी स्थापना है, उस परसे जिनवरदेवका स्वरूप जो पहिचान लेता है, उत्तीप्रकार जिनप्रतिमाको जिनसमान ही देखता है उस जीवकी भवस्थिति अतिअल्प होती है, अल्पकालमें वह मोक्ष प्राप्त करता है। 'षट्खण्डागम्' (भाग ६ पृष्ठ ४२७) में भी जिनेन्द्रदर्शनको सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका निमित्त कहा है तथा उससे निखत और निकाचितरूप मिथ्यात्व आदि कर्मसमूह भी नष्ट हो जाते है ऐसा कहा है। इसकी रुबिमें वीतरागी-सर्वस्वभाव प्रिय लगा है और संसारकी रुचि इसे छूट गई है, इसलिये निमित्तमें भी ऐसे वीतरामानिमित्तके प्रति उसे भक्तिभाव उछलता है।
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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