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________________ ममयसार कलश टीका अनुभव करता है जिसमे राग-द्वेष-मोह परिणाम होते हैं जिनमे नए कमों का बन्ध होता है। मिथ्या दृष्टि जीव अशुद्ध चनन परिणाम का कर्ता है जिससे उमको गद्ध स्वरूप का अनुभव नहीं होता और कमों के उदय के कार्य को ही अपने म्प मानकर अनुभवन करता है। जैसे मिथ्यादृष्टि के कर्म का उदय है, वैसे ही सम्यग्दष्टि के भी है । परन्तु सम्यग्दष्टि जीव को शुद्ध म्वरूप का अनुभव है इाला कर्म के उदय को कम की जानि का ही मान कर अनुभवन करता है। और अपने आप को शद्ध स्वरूप अनुभवन करता है। इसलिए कम के उदय में रंजायमान नही होता और राग-द्वेष-मोहरूप परिणमन नहीं करना। नब उमका कर्म वन्ध नहीं होता और इस प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव अगद्ध परिणाम का करता नही है ॥२३॥ अप्पं ज्यों माटी मालिश, होने की शक्ति हे ध्रव । दंड, चक्र, चोवर, कलाल, वाहिज निमित्त हव ।। न्यों प्रदगत परमाग, पंज बग्गरगा मेष धरि । ज्ञानवरगादिक स्वरूप, विचरन्त विविध परि ॥ बाहिन निमिन बहिरातमा, गहि मंश प्रज्ञानमति । जगमांहि पहंकृत भाव मों, कर्मरूप हूं परिगमति ॥२३॥ उपेन्द्रवज्रा य एव मुक्तानयपक्षपातं स्वरूपगुप्ता निवसन्ति नित्यं । विकल्पजालच्युतशान्तचित्तास्त एव साक्षादमृतं पिबन्ति ॥२४॥ जो कोई जीव निरन्तर शुद्ध चैतन्य मात्र वस्तु में तन्मय है वह जीव द्रव्य-पर्यायरूप विकल्प बुद्धि को नथा एक पक्षम्प अंगीकार को अर्थात् किमी एक पक्ष के पक्षपात को छोड़कर तथा एक सत्ता के अनेक रूप के विचार में रहित होकर, शान्तचित व निविकल्प समाधान मन में अतीन्द्रिय सुखरूप साक्षात् अमृत का भोग करता है। भावार्थ ---एक सत्ता वस्तु के द्रव्य-गुण-पोयरूप, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप का विचार करने से विकल्प होता है । विकल्प मे मन में आकुलता होती है । आकुलता दुःख है । इसलिए वस्तुमात्र के अनुभव से विकल्प मिटता है। विकल्प मिटने से आकुलता मिटतो है । आकुलता मिटने से दुःख मिटता है। इस प्रकार अनुभवशील जीव ही परमसुखी है ॥२४॥ संबंया न करें नय पक्ष विवाद, परन विषाद, पलीक न भालें। जे उद्वेग त घट अन्तर, सीतल भाव निरन्तर रा॥
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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