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________________ ( ५ ) उनके पास मन्नत मांगने पहुँच जाता है कि 'मेरा फलां काम कर देना, ये दे देना, वो दे देना।' और तो और वीतराग के मन्दिर में भी इन्हीं संसार शरीर भोगों के अभिप्राय को लेकर पहुँच जाता है और वहां सौदेबाजी करता है - 'तुम दस लाख दोगे तो मैं चार छत्र दूंगा।' धारणा वही विपरीत चल रही है तो या तो ये स्वयं को कर्ता बनाता है या फिर भगवान को कर्ता बना देता है और सोचता है कि भगवान मेरी सारी इच्छाओं की पूर्ति कर देंगे। या फिर इस अज्ञानी की समझ में ये बैठा हुआ है कि यथायोग्य पुण्य के उदय से सारी अनुकूल सामग्री प्राप्त होती है अतः ये पुण्यबंध करने के लिए वीतरागी की उपासना करता है और संसार की ही इस रूप में चाह किया करता है, मोक्ष की या मोक्ष सुख की इसे पहचान ही नहीं । संसार शरीर भोगों की प्राप्ति का ही इसका अभिप्राय है और मन्दिर में जा रहा है इस मान्यता को लेकर कि देवी-देवता सुख बांटते हैं अतः सारे देवताओं में इसके समभाव है, किसी को ही पुजवा लो, सुदेव हो, बुदेव हो, धरणेन्द्र पद्मावती हो, चाहे कोई हो । (६) छठी अज्ञानता वीतरागी देव गुरु शास्त्र के सम्बन्ध में है । यदि जीव को कभी सच्चे देव गुरु शास्त्र की प्राप्ति भी हुई और मोक्ष प्राप्ति का इसका ध्येय भी बना तो ये देव गुरु शास्त्र में ही अटक गया, वहाँ भी इसकी अज्ञानता छिपी नहीं रही। आचार्यों ने सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र को मोक्ष का मार्ग बताया । पने को अपने रूप, ता दृष्टा रूप श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन, अपने रूप जानना सम्यग्ज्ञान और ज्ञाता दृष्टा रूप रह जाना ही सम्यभ्चारित्र है और यही मोक्षमार्ग है एवं वीतरागी देव गुरु शास्त्र उस मोक्ष मार्ग की प्राप्ति में निमित्त या माध्यम पड़ते हैं । देव दर्शन के माध्यम से भी जीव को आत्मदर्शन करना था, गुरु दर्शन से भी आत्मदर्शन करना था और शास्त्रकेद्वारा भी अपनी आत्मा का स्वरूप समझ कर उस आत्मा को अपने भीतर खोजना था पर अज्ञानी ने देव दर्शन, पूजन, भक्ति कर उन पर श्रद्धान करने से अपने आपको सम्यग्दृष्टि मान लिया, शास्त्र ज्ञान से अपने आपको सम्यग्ज्ञानी मान लिया और गुरु की बाहिरी पुण्य क्रियाओं - व्रत तप उपवास आदि को ही मोक्षमार्ग मान उन्हें अपना कर उनसे स्वयं को सम्यग्वारित्री मान लिया पर असली मोक्षमार्ग की खोज नहीं की । शास्त्रों का इसने खूब अध्ययन किया उनमें यह भी तो कथन आया है कि द्रव्यलिंगी मुनि के सच्चे देव शास्त्र गुरु के मानने पर भी, ग्यारह अंग नौ पूर्व तक का अध्ययन कर लेने पर भी व शुभ क्रियाओं को
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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