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________________ Ya ममयमार कलश टोका शार्दलविक्रीडित इत्येवं विरचय मम्प्रति परद्रव्यानिवृत्ति परां म्वं विज्ञानघनस्वगावममयादास्तिप्नुवानः परं । प्रजानोस्थितकर्तृकर्मकलनात् क्लेशान्निवृत्तः स्वयं जानीभूत इतश्चकास्ति जगतः साक्षी पुराणः पुमान् ॥३॥ जीव द्रव्य अपने में अपने शुद्ध स्वरूप का अनुभव करने में समर्थ होने पर, मकल द्रव्य स्वरूप का जानने वाला गोभायमान होता है। भावार्थ--- जब जीव को शुद्ध स्वरूप का अनुभव होता है तब सकल परद्रव्यम्प द्रव्यकम भावकम, नोकर्म के प्रति उदासीनता होती है। जीवद्रव्य, द्रव्य की अपेक्षा अनादि निधन है और कर्म के सम्काररूप मूठे अनुभव में उपजे दुख में तथा इस विपरात प्रतीति में कि जीव कनां है तथा ज्ञानावरणादि द्रव्यापड जीव की करतूत है, मवंथा रहित है। पूर्व कहे अनुसार मा जीव द्रव्यकम, भावकम, नाकमरूप परवम्न है उनके प्रति मल से त्यागवृद्धि करके अपने गुद्ध चिद्रप म्वरूप का स्वाद लेना है। उम शुद्धम्वरूप का जिमका स्वभाव शुद्ध-ज्ञान-ममह है और वह अपने सदा शुद्ध स्वरूप का मान-भय से रहित स्वाद लेना है ॥३॥ संबंया-जग में प्रनादि को प्रजानी कहे मेरो कर्म, करता मैं याको किरिया को प्रतिपायी है। अन्तर मुमति भासी जोग भयो उदासी, ममता मिटाय परजाय बुद्धि नाखो है ।। निरभय म्वभाव लोनो अनुभव को रम भीनो, कोनो व्यवहार दष्टि निहचे में गयी है। भरम की डोरी तोरी धरम को भयो धोरी, परम सों प्रीति जोरी करम को साखी है ॥३॥ शार्दूलविक्रीडित व्याप्याग्यापकता तदात्मनि भवेन्नवातदात्मन्यपि व्याप्याव्यापकमावसम्भवमृते का ककस्थितिः ।
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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