SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अजोव-अधिकार वर्णादिमानटति पुद्गल एव नान्यः । रागारिपुद्गलविकारविल्यशुर चंतन्यधातुमयमूतिरयं च जीवः ॥१२॥ जीव और अजोव में एकत्वबुद्धि का अविवेक अर्थात् मिथ्यात्व अनादि काल ने है। संसार में पुद्गल अर्थात् अचेतन मूत्तिमंत द्रव्य निश्चय ही नाटक की भांति धारासंतानरूप में, बारम्बार, विभावरूप (नानारूप) परिणमन कर अनादिकाल से नाच रहा है। भावार्थ-चेतन द्रव्य तथा अवेतन द्रव्य अनादि से अपना-अपना स्वरूप लिए हुए हैं। परस्पर भिन्न है। ऐसा प्रगट अनुभव करना आसान है। इनका एकत्र संस्काररूप अनुभव हो अचम्भे की बात है। ऐसा अनुभव क्यों होता है ? जबकि एक चेतन द्रव्य है और एक अवेतन द्रव्य है और उनमें घना (बहुत) अन्तर है । यह कोई अचम्भा नहीं है बल्कि अशुअपना लिए हुए बुद्धि का प्रम है। जैसे धतूरा पीने मे दृष्टि विचलित हो जाती है। श्वेत शंख पीला दिखता है। वस्तू विचार से ऐसी दष्टि सहज नहीं है, दष्टिदोष है। दष्टिदोष धतूरे की उपाधि से हमा है। जीवद्रव्य कर्मसंयोगरूप अनादि मे हो मिला चला जा रहा है। इस मिलावट ने ही उसका विभावरूप अशुरूप परिणमन कराया है। इस अशुपने में उसके ज्ञान व दृष्टि भी अशुद्ध हैं जिनके कारण वह चेतन द्रव्य को एकत्व संस्काररूप अनुभव करता है। ऐसा संस्कार है, परन्तु वस्तु स्वरूप के विचार में ऐसी अशुख दृष्टि सहज (स्वाभाविक) नहीं, अशुद्ध है-दृष्टिदोष है। यह दृष्टिदोष पुद्गलपिरस्प जो मिथ्यात्व कम है उसके उदय की उपाधि (संयोग) से हमला है। जैसे-दृष्टिदोष के कारण श्वेत शंख का पीला अनुभव करता है तो वह दृष्टि में दोष है, शंख तो श्वेत ही है। पीला दिखने में शंख तो पीला हुआ नहीं। उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि चेननवस्तु और अचेतनवस्तु को एकल्प अनुभव करता है । यह भी दृष्टि का ही दोष है। एकरूप अनुभव करने से एक होता नहीं क्योंकि (दोनों में) घना (बहुत) अन्नर है। स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण गुणों से युक्त पुद्गल से संयोग तथा रागद्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभादि असंख्यात लोक मात्र जीव के अशुद्ध परिणामपुद्गल के साथ अनादि काल के विकारी बंध पर्याय के कारण जीव के विभाव
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy