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________________ ममयमार कलश टीका गंगाद नथा तन हव्य का कथन मात्र के लिए एकपना है। जमें- मोने और चादी को मिलाकर एक पामा बना ले तो कहने के लिए तो उम मारे को मांना ही कहा जाता है। इसी प्रकार जीव और कम अनादि मे एक क्षेत्र मबंध म्प मिला आया है इमर्माना कथन मात्र के लिए उस जीव ही कहते है । परन्तु दूसरे पक्ष में द्रव्य के निज म्बम्प के विचार में, निश्चय ही, जीव-कर्म का एकपना नहीं है। भावार्थ---मोना-चांदी यद्यपि एक क्षेत्र मिला है, एक पिंडम्प है, मोना पीलापन, भारीपन चिकनापन इम प्रकार अपने गुण लिए हए है और चांदी भी अपना श्वेतगुण लिए हुये है। इाला एकपना कहना झूठा है । इसी प्रकार जीव-कर्म याप अनादि-काल मे बंध-पर्यायम्प मिला आया है, एक पिइरूप है तथापि जीव द्रव्य में अपना ज्ञानगुण विराजमान है। कर्म भी पुद्गल द्रव्य का अचेतन गुण लिए हुये हैं। इसलिए एकपना कहना झूठा है नथा म्नति करने में भंद है। __व्यवहारतः अर्थात् बध-पर्यायम्प एक क्षेत्रावगाह होने की दृष्टि मे, शरीर की स्तान में जीव का ग्तति होती है परन्तु दूसरे पक्ष मे शुद्ध जीव द्रव्य के विचार में नहीं होता है। भावार्थ-यप कहने में स्वंत म्वणं आता है तथापि वेतपना गुण चांदी का है। इसलिए माना मफंद है गेमा कहना झठा है। दो तीर्थकर रक्तवणं थे. दो कृष्ण, दा नील. दो पन्नावर्ण तथा मालह म्वर्ण के रंग के थे यद्यपि मा करने में आता है तथापि वेत, रक्त, पीतादि पुद्गल द्रव्य के गण हैं. जीव के गण नहीं है। इस तरह वन. ,रक्त, पीतादि कहने से नही, ज्ञानगुण कहने में जीव की ग्नान है। प्रश्न--फिर गरीर की म्नति करने में जीव की म्नति कैसे होती है ? उत्तर-उसका चिद्र प अर्थात ज्ञान-स्वरूप कहने में होती है। गद्ध जीव द्रव्य के विचार मे. गद्ध ज्ञानादि का वारंवार वर्णन-म्मरणअभ्यास करने मे नि संदेह जीव द्रव्य की म्नति होती है। भावार्थ पीला, भारी, चिकना मोना कहना मोने की बम्प म्नति है। केवली सा है ? केवली गेमा है कि जिसने पहले तो गद्ध जीव म्वरूप का अनुभव करके इन्द्रियों को तथा विषय-कपाय को जीता और बाद में जड़ में ही उनका क्षय कर दिया। जो मकल कर्मों का क्षय करके केवलज्ञानकेवलदर्शन-केवलवीयं-केवल मुम रूप विगजमान है---ऐसा कहने मे, जानने से तथा अनुभव करने में केवली की गणम्वरूप स्तुति होती है। इस तरह यह
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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