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________________ जोव-अधिकार यह करतूती यों जुदाई करे जगत सों, पावक ज्यों भिन्न करे कंचन उपल सों ॥२२॥ मालिनी छन्द प्रयि कथमपि मृत्वा तत्वकौतूहलोसन् ___ ननुभव भवमूतः पाश्र्ववर्ती मुहूर्तम् । पृथगविलसंतं स्वं ममालोक्य येन त्यजसि झगिति मूर्त्या साकमेकत्वमोहम् ॥२३॥ है भव्य जीव । शरीर में भिन्न स्वरूप हो। भावार्थ--अनादिकाल में जीवद्रव्य एक संस्कारम्प चला आ रहा है। उस जीव का ऐसा कह कर प्रतिबोधित करते हैं कि है जीव, यह मब जो शरीरादि पयाय है सब पुद्गल ममं के है। तुम्हारे नहीं। इसलिए इन सब पर्याया में अपने आप को भिन्न जान। भिन्न जानकर, थोड हो काल में, शरीर में भिन्न चेतन द्रव्य का, प्रत्यक्षम्प मे आम्वादन कर । भावार्थ-गरीर तो अचेतन है, विनश्वर है। गरीर में भिन्न काई नो आत्मा है, प्रेमी प्रतानि ना मिथ्यादष्टि जीव को भो होती है परन्तु माध्य सिद्धि तो उसमें कुछ नहीं होती। जब जोव द्रव्य के द्रव्यगृणपर्याय म्वम्प का प्रत्यक्ष आम्वाद आवे नब मम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र हो । गद चतन्य स्वरूप का कोहली अर्थान म्वरूप देखना नाहने वाला किसी भी प्रकार, किमी भी उपाय मे, मर कर भी, गुद्ध जीव स्वरूप को जानने का उपाय करता है। शुद्ध चैतन्य के अनुभव में द्रव्यकर्म-भावकमनोकर्म इन्यादि कमम्प पर्याय में जो एक समारम्प---में देव, मैं मनुष्य, मैं नियंच, मैं नारकी, मैं मुखी, मैं दुखा, मैं क्रोधी. मैं मानी, मैं यती, मैं गृहस्थ इत्यादि रूप जो प्रतीति है वह जाती है अर्थात नष्ट होता है। मोह अर्थात् विपरीत रूप में अनुभव होना । हे जीव ! अपनी ही वृद्धि में तू ही छोड़ सकता है। भावार्थ-अनुभव जानमात्र वस्तु है। एकन्वमोह-मिथ्यात्व जीव द्रव्य का विभाव परिणाम है । तो भी इनका आपम में कारण-कायंपना है। इसका खुलासा-जिस काल जीव को स्वानुभव होता है उस काल मिथ्यात्व
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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