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________________ जीव-अधिकार स्म है। वो नवों परिणामों में देखा जाय तो नव ही तत्त्व सत्य है। परन्तु यदि चेतनामात्र अनुभव किया जाय तो नवों ही विकल्प मूठे हैं ॥७॥ संबंया-से हरस, काष्ठ, बास, पारने इत्यादि और जाति पिलोकत कहावे मागि नानाल्प, रोसे एक हक स्वभाव जब महिए। तसं नवतत्व में भया है बहु मेवी जोक, शख रूप मिश्रित प्रशल्प कहिए, जाही माल चेतना सकति को विचार कोजे, ताही मरण अलख अमेवरूप लहिए ॥७॥ मालिनी छन्द चिरमितिनवतस्वच्छन्नमुन्नीयमानं कनकमिव निमग्नं वर्णमालाकलापे। अथ सततविविक्तं दृश्यतामेकल्पं प्रतिपदमिदमात्मज्योतिरुद्योतमानम् ॥८॥ मुझे जीव द्रव्य को ज्योति अर्थात् शुद्ध मान-मात्र का सर्वथा अनुभव हो। नाटक की तरह एक हो जीववस्तु, एक ही समय में, अनेक आश्चर्यकारी भावरूप दिखाई देती है। इसी कारण इस शास्त्र का नाम नाटक समयसार है । पर्यायमात्र के विचार से यह शानवस्तु अनादि काल से विभावरूप रागादि परिणामों से अपवा नवतत्त्वों से आच्छादित है। भावार्थजीववस्तु अनादिकाल में धातु और पाषाण के संयोग की तरह कर्म पर्याय से मिली हुई चली आ रही है। मिथित राणादि विभाव परिणाम से व्याप्त, व्यापकल्प अपने को परिणमन करा रही है। यदि परिणमन को देखा जाय तो जीव नवतस्वरूप है, ऐसी दृष्टि बनती है। कथंचिन ऐसा है, सर्वचा मूठ नहीं है। विभाव रागादि रूप परिणमन की शक्ति जीव ही में है। अव दूसरा पक्ष कहते हैं-वह जीववस्तु द्रव्यरूप है, अपने गुण-पर्याय में विराजमान है। यदि शुद्धद्रव्यस्वरूप को देखा जाय, पर्यायम्वरूप को न देखा जाय, तो वह निरंतर नवतत्वों के विकल्पों मे रहित है शद्ध वस्तुमात्र है । शुद्ध स्वरूप का अनुभव ही सम्यक्त्व है।
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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