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________________ । २६) पंक्ति भेदनान को दर्शाती है, प्रत्येक लाइन में अपने पापको निजमाव न, मान म्प देखने की प्रेरणा की गई है जो कि यह बताती है कि इस बास्त्र के रचयिता उन आचार्यदेव के भीतर केसा करुणा का समुद्र बहता होगा कि जिस किसी प्रकार भी यह जीव अपने अनादि मिथ्यात्व को छोड़ कर सम्यग्दर्शन को, उस निर्विकल्प स्वानुभव को प्राप्त कर ले। निर्विकल्प स्वानुभव चौपे गुणस्थान में हो सकता है क्योंकि चतुर्ष गुणस्थान अविरत सम्यम्दृष्टि का है और निर्विकल्प स्वानुभूति के बिना सम्यग्दर्शन होता नहीं। कुछ व्यक्तियों की मान्यता के अनुसार चौधे गुणस्थान में निर्विकल्प स्वानुभूति नहीं होती क्योंकि वे कहते हैं कि शास्त्रों में पाठवें गुणस्थान से निर्विकल्प समाधि लिखी है। शास्त्रों में यह कथन बाता है यह बात सत्य है पर किस विवक्षा से ऐसा लिखा गया है यह तो हमें ही समझना होगा क्योंकि 'चतुर्थ गु. में निर्विकल्पानुभूति होती है' यह कथन भी शास्त्र का ही है। शास्त्रों में अलग-अलग स्थलों पर भिन्न-भिन्न ढंग के कथन मिलते हैं उनमें माचार्यों की अपेक्षाएं लगाकर हमें बुद्धि में उनका तालमेल बैठाना होगा बिससे पूर्वापर कोई विरोध न रहे। चतुर्थ गु० में निर्विकल्पानुभूति उन्होंने कैसे कही इसका खुलासा यही है कि विकल्प दो प्रकार के होते है-एक तो दुटिपूर्वक और एक अबुटिपूर्वक । जो जीव को पकड़ में बाएं उन्हें बुम्पूिर्वक और जो उसकी पकर के बाहर हों उन्हें अबुटिपूर्वक कहते हैं। चौथे गु० में जीव के क्योंकि बुद्धिपूर्वक कोई विकल्प नहीं रहते बत: उसे निर्विकल्प अनुभूति कहा और आप यदि उस आनन्दास्वादो से पूछे तो वह भी यही कहेगा कि 'सच में ही मेरी उस समय निर्विकल्प अवस्था पी। कोई भी विकल्प मुझे नहीं था।' अब वह तो अलाशानी है, छपस्व है और उसको पकड़ में बाने योग्य बुद्धिपूर्वक जो सारे विकल्प हैं उनका उस समय अभाव हमा ही है बतः उसको अपेक्षा यह कथन सत्य है पर किसी महान ज्ञानी से, केवम शानी से उसी ममय यदि बाप बात करें तो वे कहेंगे-'बभी निर्विकल्पता कहाँ ? बभी तो अग्रिपूर्वक बनम्तों विकल्प इसके पड़े हैं। कषाय की तीन चौकड़ियां शेष है, केवल अनन्तानुबंधी हो तो गई है। हम तो आठवें गुणस्थान में जब यह जोव घेणी मारकर शुक्ल ध्यान प्रारम्भ करेगा और भीतर में लीनता इसकी बढ़ेगी तब इसे निर्विकल्प समाधि स्थित करेंगे।' इस प्रकार से इन कथनों को यदि हम सममें तो बात पूरी सन्ट हो जाती है। उदाहरण के रूप में मान लीजिए कि हम एक निश्चित स्थान परब ए दूर नितिन की ओर जाते हुए एक व्यक्ति को देख रहे हैं ।
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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