SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३४ ) मैशा चढ़ा तो झूम रहे हैं पर अब वह यदि यह चाहे भी कि मुझे नशा न गढ़े तो यह सम्भव नहीं। तो इस ज्ञानी ने भी पहले जो मोह को भांग पी थी उसका अभी इसे नशा चढ़ा हुआ है और अभी भी यह झूमता हुआ पाया जाता है पर भीतर में उस नशे को हेय हो समझ रहा है और चाहता भी यही है कि कब यह नशा खत्म हो और एक समय ऐसा आएगा हो कि नशा खत्म होगा और आगे यह भांग पिएगा नहीं तो हमेशा के लिए स्वस्थ हो जाएगा, स्व में स्थित हो जाएगा। पर यह नशा तो जब खत्म होगा तब होगा अभी बाहर से देखने वाले को तो वह झूमता हुआ ही दिखाई दे रहा है, परिवर्तन जी बहुत बड़ा उसमें आया है उसे तो वह स्वयं ही जानता है, वह उसके भीतर की वस्तु है और अभी वह बाहर दिखाई देगा नहीं। बाहर में तो जब व्रती या मुनि अवस्था आएगी तभी वह प्रगट होगा । वचन से भी ज्ञानी अज्ञानीपने का माप नहीं-ऐसे ही ज्ञानी अज्ञानीपने का सम्बन्ध मुंह से क्या कहा जा रहा है इससे भी नहीं। हो सकता है कि ज्ञानी मुंह से शरीर को अपना कहे, स्त्री पुत्र आदि को अपने कहे पर ऐसा कहते हुए भी दिखाई उसे वे पर ही दे रहे हैं और अज्ञानी मुंह से चाहे उन्हें पर कहें कि ये मेरे नहीं पर दिखाई उसे वे अपने हो देते हैं। लोक में इसके उदाहरण भी पाए जाते हैं। हम दूसरे के बच्चे को लेकर जा रहे हैं, रास्ते में किसी ने पूछा- 'किसका बच्चा है ?' हमने कहा- 'अपना ही है।' उस बच्चे को अपना कह रहे हैं पर वह अपना मात्र कहने भर को ही है, दिखाई वह पर का ही दे रहा है। ऐसे ही हमारा अपना कोई बच्चा है, उसमे खूब लड़ाई झगड़ा हो गया और हमने कहा कि आज से तेरा हमारा कोई सम्बन्ध नहीं और वह अलग भी रहने लगा। मुंह से कुछ ही कह दें पर हृदय निरन्तर यहो कहता रहता है कि कुछ ही कह ले, है तो अपना ही और कल को यदि किसो दुर्घटना के वशीभूत वह बहुत घायल हो जाए तो खबर लेने पहुँच हो जाएँगे उसके घर या हो सकता है कि तीव्र कषायवश न भो जाएं पर ध्यान निरन्तर वहीं का ही लगा रहेगा। जब लौकिक में यह सम्भव है तो परमार्थ में क्यों नहीं ? ज्ञानी वचन व काय से लौकिक व्यवबहार बलाता है पर मन उसका चेतना से ही जुड़ा रहता है। संसार नाटकदत् - क्योंकि ज्ञानी का मन निरन्तर बेतना से ही जुड़ा रहा है अत: यह संसार उसके लिए नाटक का रंगमंच हो जाता है और स्वयं को वह नाटक का एक पात्र मात्र देखने लगता है। नाटक में जिस
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy