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________________ साभ्य-साधक अधिकार से मिथ्यादृष्टि जोब के अनादिकाल से लेकर नाना प्रकार की भोगसामग्री को भोगते हुए मोह-राग-द्वेषरूप अशुद्ध परिणति के कारण जो कर्म का बन्ध अनादिकाल से होता था सो सम्यक्त्व को उत्पत्ति से लेकर शर जीवस्वरूप के अनुभव में समाता हुआ मिट गया सो मिटने पर कुछ है ही नहीं, जो था सो रहा। उस क्रिया के फल के अवगुण कहते हैं- उस क्रिया के फल के कारण ही 'यह आत्मस्वरूप-यह परस्वरूप' ऐसा अनादिकाल से लेकर द्विविधापन हुआ। भावा-मोह-राग-द्वेष जीव को स्वचंतनापरिणति है ऐसा माना। और उस क्रियाफल के कारण शुद्ध जीववस्तु के स्वरूप में अन्तराय हमा। भावार्थ जीव का स्वरूप तो अनन्त चतुष्टयरूप है पर उस क्रिया फल के कारण जीव ने अनादि से लेकर अनन्त काल गया, अपने स्वरूप को नहीं प्राप्त किया व चतुर्गति संसार का दुःख प्राप्त किया। उस क्रिया के फल से अशुद्धपरिणतिरूप परिणाम हुआ और एसा होने पर 'जीब रागादिपरिणामों का कर्ता है और भोक्ता है' इत्यादि अनेक विकल्प उत्पन्न हुए। और उस क्रिया के फल के कारण जीव ने आठ कर्मों के उदय का स्वाद भोगा। भावार्थ-इस प्रकार है कि आठ ही कर्मों के उदय से जीव अत्यन्त दुःखी हैं सो भी क्रिया के फल के कारण ही है ॥१५॥ बोहा-प्रबकविकुछ पूरबशा, कहे माप सों प्राप। सहन हवं मन में बरे, करे न पश्चात्ताप ॥ संबंया-जो मैं पापा छाडिदोनो पररूप गहि लीनो, कोनोनबसेरो तहां जहां मेरो पल है। भोगनि को भोगी करम को करता भयो, हिरवं हमारे राग देष मोह मल है। ऐसी विपरीत चाल भई जो प्रतीत काल, सो तो मेरे क्रिया की ममताही को फल है। मानष्टि भासी भयो क्रिया सों उदासीबह, मियामोह निद्रा में सुपन को सो फल है ॥१५॥ . उपजाति स्वशक्तिसंसूचितवस्तुतत्वाल्याकृतेयं समयस्य शम्नः । स्वरूपगुप्तस्य न किंचिस्ति, कर्तव्यमेवामृतपणारेः ॥१६॥
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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