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________________ स्यावाद अधिकार २१९ शार्दूलविक्रीडित प्रादुर्भावविराममुद्रितवहज्जानांशनानात्मना निर्मानान क्षणभंगसंगतितः प्रायः पशुनंश्यति । स्थादादी तु विदात्मना परिमृशंश्चिद्वस्तु नित्योदितं टोत्कीर्णघनस्वभावहिमाजानं भवन् जीवति ॥१४॥ कोई एकानवादा मियादप्टि जाव पसा है कि वस्तु का पयायमात्र मानना है.द्वारा नहा मानना है माल अडधारा प्रवाहमा परिणमन कर रह ज्ञान में जा हर समय उत्पाद और पहा रहा है ना उसका पाया को विनगते देख कर जाव द्रव्य का विनाश मान लना है। स्याद्वादी उमका ममाधान करता है कि पर्याय दृष्टि में देखने गे जीव वस्तु उपजती है और विनाश को प्राप्त होती है परन्नद्रव्यदष्टि देगना जीव गदा शाश्वत है। एकांतवादी जीव ने यह जाना है कि ज्ञान गुण ये. अविभागनिनछंद उत्पाद और विनाशमे मंयुक्त प्रवाहम्प हैं और उनके कारण हुए अनेक अवस्था भद के जानपने के कारण हर गमय में जो पर्याय का विनाश होता है उम पर्याय के साथ ही वस्तु का बिना मानना है। ऐसी एकान्न मान्यता के कारण वह एकान्लवादी जोत्र गद्ध जीव वग्न के माधन ग भ्रष्ट है। अनेकान्नी जीव उसका प्रनियोधन करना है। जंगा एकान्नवादी कहता है वेमा कालापना नहीं है । ग्यादादी और अनेकानवादी जीव बम्न को गिद करन म गमथं है। वह ज्ञान म्याप जाव वग्नु के द्वारा ज्ञान मात्र जीव वस्तु का मयंकाल, नाश्वन, प्र.क्षम्प ग आग्वादन करना अथवा अनुभव करना है। मवंकाल एक ज्ञानघनम्वभाव जिमया मिट लक्षण है, और जिसका अमिट लक्षण लोकप्रसिद्ध है, उम जीव वग्न का म्यादादी जाव स्वयं अनुभव करता है ।।१४।। संबंया-कोउ एक भगवादी कहे एक रिमां., एक जीव उपजत एक विगत है। जाहो ममं अंतर नवीन उनपनि होय, नाहो ममय प्रथम पुरानन बमत है॥ सरवांगवादी क.. जसं जल बन्नु एक, सोही जल विविध तरगन समनहे।
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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