SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२२) भी ज्ञाता हो है, उस परिणनि का भी कर्ता नहीं। द्रव्य दृष्टि से न उमे इच्छाओं का कता कहते हैं न कषायों का, परंतु पर्याय में अभी भारी कमजोरी है, बहुत पराधीनता है अत: इच्छाओं और कषाय का सद्भाव पाया जाता है। द्रव्य दृष्टि के विषय को पर्याय में और पर्याय दृष्टि के विषय को द्रव्य में नहीं मिलाना चाहिए । द्रव्य दृष्टि से जीव मात्र ज्ञाता है और पर्याय दष्टि में मारी जिम्मेवारी उसकी अपनी है। पर्याय में पश्चात्ताप भी आता है कि मेरी मी परिणति क्यों हुई? कर्म का नाश तो द्रव्य दृष्टि के बल पर होगा पर पर्याय दृष्टि के ज्ञान के बल से स्वच्छंदीपना नहीं आएगा। मानो का पर्याय में विवेक-ज्ञानी ज्ञान का ही मालिक है, उसके मिवाय अन्य कुछ कर नहीं सकता पर अभी अधूरी अवस्था है इसीलिए पर्याय में इतना विवेक उसे है कि तीव्र कषाय से हट कर मंद व.षाय रूप रहने की चेष्टा करता है परन्तु उसे मोक्षमार्ग नहीं मानता, राग का ही कार्य जानना है । आत्मबल की कमी के कारण निर्विकल्पता नहीं बन पाती और विकल्पों में जाता हो है तो अन्य लौकिक बातों से बच कर देव, शास्त्र, गुरु में ही लगने की चेष्टा करता है और लौकिक में भी तीव्र कषाय गभित विकल्प न उठा कर मंद कपाय वाले ही उठाता है। जैसे कोई व्यक्ति जा रहा है, उसको देखकर हम यह विकल्प भी उठा सकते हैं कि 'बड़ा आदमी हा गया, अब क्यों हमारी तरफ देखता' और यह भी सोच सकते हैं कि 'जल्दी में होगा इसीलिए नहीं देखा। प्रत्यक्षतः पहला विकल्प दूसरे की अपेक्षा अधिक कषाय को लिए हुए है, तो जानी दूसरी प्रकार के विकल्प में हो जाएगा। उसका सोचने का ढंग ही अज्ञानियों से निराला हो जाता क्योंकि उसे वस्तु तत्त्व समझ में आ गया कि परिस्थिति तो मुझे कषाय कराती नहीं, मैं स्वयं ज्ञाता रूप रहने को अपनी असमर्थता के कारण परिस्थिति से जड़कर विकल्पों में बह जाता है और उसके फलस्वरूप स्वयं ही अपनी चेतना का घात कर बैठता हूँ अतः अपेक्षाकृत मंद कषाय वाले विकल्प ही क्यों न उठाऊँ जिससे मेरे आत्म-स्वभाव का कम घात हो।' द्रव्य दृष्टि से जानी ज्ञाता रूप ही रहने का पुरुषार्थ करता है पर पर्याय दृष्टि से अपनो कमजोरी और न बढ़े इसके लिए बाहरी व्रत तप क्रिया को भी अंगीकार करता है जैसे यदि शरीर में १०२ को बुखार है तो उसके लिए दो प्रयत्न किये जाते हैं-बखार आगे और न बढ़े इसके लिए परहेज और जितना है उतना भी खत्म करने के लिए दवाई। उसी प्रकार शानी भी
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy