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________________ २१८ समयसार कलश टाका जय वस्त भी ज्ञान वस्त में नहीं है जय रूप से है। इसमें यह अर्थ निकला आप कि पर्याय के द्वार से दृष्टि ऐसा मंद स्याद्वादी अनुभव करना है इसलिए स्याद्वाद वरन स्वरूप का साधक है और एकान्तपना वग्न के स्वभाव का घातक है ॥ ३ ॥ सर्वया कोउ मिथ्यामनि लोकालोक व्यापि जान मानि समभं त्रिलोक पिण्ड प्रातम दरव हैं । याही ते स्वच्छन्द भयो डोने कहे या जगत में हमारी मुल्य न बोल, ही परब है ॥ नाम ज्ञाता को जीव जगतगों भिन्न है पं, जगको विकासी नाहि याही ते गरब है । जो वस्तु मो वस्तु पर मों निराली सडा, निचे प्रमाण स्यादवाद मे सरब है ॥ ३॥ शार्दूलविक्रीडित बाह्यार्थग्रहणस्वभाव भरतो विश्वग्विचित्रोल्लमज्ञेयाकारविशीगंशक्तिरभितस्त्रुट्यन्पशुनंश्यति । एकद्रव्यतय. सदाव्युदितया भेदभ्रमं ध्वंसयन् एकं ज्ञानमबाधितानुभवनं पश्यत्यनेकान्तवित् ॥४॥ कोई एकांतवादी जीव पर्याय मात्र को वस्न मानना है, वग्नु को नहीं मानना है । इसलिए ज्ञानवस्त अनेक बंध को जानती है और उनका जाननी हुई जयाकार परिणमन करती है ऐसा जान कर वह मिथ्यादृष्टि जीव ज्ञान को अनेक मानना है, एक नही मानना । एक ज्ञान को न मानकर अनेक ज्ञान को मानने में ज्ञान का अनेकपना सिद्ध नहीं होना इसलिए ज्ञान को एक मान कर अनेक मानना वस्तु का साधक है। जिनती भा ज्ञेय वस्तु हैं उनकी आकृतिरूप ज्ञान का परिणाम है। यह उस वस्तु का सहज स्वभाव है किसी में वर्जित करने की या मेटने की सामथ्यं नहीं है। तो भी मिथ्यादृष्टि एकान्तवादी जीव वस्तु को नहीं साध सकता। वह जंसा मानता है वह झूठा है। क्योंकि (ज्ञान) अनत है, अनन्त प्रकार है-प्रगट रूप से तो जैसा है वैसा ही है । छः द्रव्य के समूह के प्रतिविम्व रूप उसकी पर्याय ने परिणमन किया है लेकिन मिथ्यादृष्टि जोव ने इतनी मात्र ज्ञान की श्रद्धा करके अपनी
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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