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________________ ममयसार कलश टीका आनन्य है और वस्त मात्र विचार मनिन्य: म प्राना का इस प्रकार समाधान करना ..यह म्यादान है। बग्न का ग्वा गा ही है और मी हा माधना ग वनु मात्र गधना है। कमियादाट जीव यह नहीं मानने कि जा वग्नु वान वहां पयांचाप है। व या ना मवंथा वस्तुमाही मानने या मधा पयायमाय मानत है । म जावा को एकानवादा मिथ्यादष्टि का है। कारण किवान मात्र न मान, पयांग मात्र माने ना पयांय भी नही गधनगर जनक प्रमाण, अवसर पाकर करगा। मी प्रकार पांयम्प न मानन ग वग्न माय भी नहीं मानी--मका दान क लिए भी अना विनया : । अवनर मिनगा ना करग। कई मिथ्यादष्टि जीव ज्ञान का पर्याय मानने वाला नहीं मानने है और गमा मानन हा जान ना जय पर निर्भर मानन है। गएकानपने में जान नही गाना। ज्ञान का अपना गना: । एकानवादी मिथ्यादष्टि जा ज्ञान पर जय की मामध्यं मानना, वर जाव की गना का या वस्तु के आम्नाय को नही पा मकना । भावाचं मान्नवादी के कथन में वस्तु का अभाव सध्रना है, वन का अम्लिय ना मना है। कारण कि मिथ्याष्टि जीव मानना है कि जान का भय बन्न न गव नगरह म आत्मसात् कर रपमा है । भावार्थ मिथ्यादाट जीव मानना है कि ज्ञान का यम्त नहीं है, वह नय में है मा भी उगी क्षण उपजना है और उमा अण विना जाता है । जंग घट का ज्ञान घट म । प्रनानिहाना. जहा-जहा घट है, वहा घटज्ञान है । जव घट नही था ना घट ज्ञान भी नहीं था। जब घट नही होगा ना घट ज्ञान भी नहीं होगा। न मिथ्यादाट जाब ज्ञान वस्तु का न मानते हुए ज्ञान को पयायमात्र मानन हैगएकानवादा मिथ्यादष्टि जीव मानते हैं कि जब को जानने मात्र में जान मना हुई है। ज्ञान नाम में फिर विनाश को प्राप्त हो जाता है। वे मन म हा लेकर जय वस्तु के निमित्त का एकान्त कम कहते हैं कि ज्ञान जेय मे उत्पन्न हआ और जय से विनाश को प्राप्त हुआ । भावार्थ -- जम दीवार पर चित्र बना। जव दीवार न थी चित्र न था। जब तक दीवार है तब तक चित्र है जब दीवार न होगी तब चित्र न होगा। इसमें एसी प्रतीति होती है कि चित्र का सर्वस्व (अस्तित्व) दीवार पर निर्भर है : जैसे जब तक घट है तब तक घट ज्ञान है। जब घट नहीं था तब घटज्ञान में नहीं था । जब घट नही होगा तब घटज्ञान भी नहीं होग। इससे यह प्रतीति होतो है कि ज्ञान का सर्वस्व (अस्तित्व) जय से है कई अज्ञानी एकान्तवादा ऐसा मानते है इसलिए अज्ञानी के मत में ज्ञान वस्तु नाम की कोई चीज नहीं
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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