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________________ शुद्धात्म-द्रव्य अधिकार पशुख परिणति परे, करें ग्रहं पर मान । ते पशुट परिणाम के, कर्ता होय प्रजान ॥१०॥ खग्धरा कार्यत्वादकृतं न कर्म न च तज्जीवप्रकृत्योर्द्वयोरमायाः प्रकृतेः स्वकार्यफलभुग्भावानुषङ्गात्कृतिः । नकस्याः प्रकृतेरचित्वलसनाजीवोस्य कर्ता ततो जीवस्यव च कर्म तच्चिदनुगं जाता न यत्पुद्गलः ॥११॥ नो उस ममय में जीव-द्रव्य गगादि अगद्ध नेतना परिणामों में व्याप्य व्यापकप मे परिणमता है माला वह कर्ता है। रागादि अपड परिणमन अशुद्ध चेतनाम्प है और उम ममय में उम कप जीव-द्रव्य स्वयं व्याप्य व्यापक रूप में परिणमन करता है मालिए अगुद्ध परिणमन जीव का कर्म है। पुद्गल द्रव्य चेतनारूप नहीं है परन्तु गगादि परिणाम चेतनारूप हैं इसलिए वे जीव के किए हैं। आगे इमो हो भाव को गाढ़ा करते हैं। ऐसा नहीं है कि रागादि अशुद्ध चेतनारूप परिणाम आकाश द्रव्य की भांति स्वयं सिद्ध हैं, ये किसी के द्वाग किए हए हैं और (चंकि घड़े की तरह) उपजते और विनशते हैं इसलिए मी प्रतीति होनी है कि ये क्रियारूप । रागादि अशुद्ध चेतना परिणमन चतना द्रव्य तथा पुद्गलद्रव्य दोनों की क्रिया नहीं है। भावार्थ-बदि कोई ऐसा मानता है कि जीव और कर्म मिलने से रागादि अशुद्ध चेतना परिणमन होते है इसलिए दोनों ही द्रव्य कर्ता तो उमका ऐसा समाधान है कि दोनों कर्ता नहीं है कारण कि रागादि अशर परिणामों का बाह्य निमित्त-कारण मात्र पुद्गल कर्म का उदय है। अंतरंग कारण जीव द्रव्य का विभावरूप होकर उनम व्याप्य-व्यापकरूप से परि. णमना है इससे नीव का कर्तापना घटित होता है, पुद्गल कर्म का कर्तापना नहीं घटता। और फिर अचंतन द्रव्य रूप ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म यदि रागादि अशुद्ध परिणामों का कर्ता हो तो उसे अपनी इस करतूत के फल सुब-दुब का भोक्ता भी होना चाहिए। भावार्थ --जो द्रव्य जिस भाव का कर्ता होता है वही द्रव्य उसका भोक्ता भी होता है । सो यदि रागादि बड़ों वेतन परिणामों को जीव और कर्म दोनों ने मिल कर किया होता तो दोन
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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