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________________ शब्द नही, कोई विकल्प नहीं, गग-द्वेषादि कुछ नहीं, कोई मैं नहीं, मात्र एक अकला वह तन्य अपनी निगली महिमा को लिए विराज रहा है। इस प्रकार किसी भी क्रिया का माध्यम बना उसका साक्षी बनते. बनते जीव को अनुभूति जाग्रत होती है और तब इमे पता चलता है कि अरे ! मैं ना यह जानने वाला था, आज तक मैं कमा मतवाला गहला हो रहा था जो मैंने सबको जाना, जानने वाला जो है उमको ही नहीं जाना था, स्वयं को जाना ही नहीं था, यह नो प्रत्यक्ष ही था पर मेरे न देखने के कारण यह आवत था। जैसे कोई स्वप्न में उठकर अपने दुख को खो बैठता है वैसे ही यह जाग जाना है और इसकी अनादिकालीन दरिद्रता ममाप्त हो जाती है। माक्षी भाव ही एक मा उपाय है. जिमन कपाय हटता है, इन्द्रियों को आधीनता समाप्त हाना है, जो अपना है वह रह जाता है और जो अपना नहीं वह जाने लगता है। उम अनुभव में जो आनन्द प्राप्त होता है वह कहने की वस्तु नहीं, वह ना गृग का गृह है। गंग का गुड़ का स्वाद तो प्रत्यक्षही आया है पर वह उमे जिह्वा में बना नहीं सकता। और ऐसा अनुभव इमक्षत्र में, दम काल में बालक, जवान, वृद्ध, स्त्री व पुरुष मभी के घर में रहते हा भी हो सकता है और तो आर पशु के भी हो सकता है और इम अनुभव के बाद वह पग भी ज्ञानी कहलाने लगता है, मोक्षमार्गी हो जाता है। अनुभव के लिए गुरुपाय व धेयं का अत्यधिा आवश्यकता है । यदि ये धंयपूर्वक प्रयत्न करना हो जाए तो अनुभूति होनी ही पड़ेगी। क्योंकि वह स्वाधान चोज है। व.को मागे वम्मा का प्राप्त करने के लिए तो कर्म का महमाव अक्षिा है आर इसने अभाव चाहिए पर जोव का पुरुषार्थ ज्ञाता पर जोर देना मात्र है, जाननाने में आना सर्वस्व स्थापित करता है, अनुभूति हुई कि नहीं इस पर दृष्टि नहीं रहनो चाहिए । यह मन बहत चालाक है, ज्ञातापने मे डिगाने के लिए यह विकल उठता है कि तुम्हें तो स्थानुभूति गानो थो, देखो नो सही यह हुई कि नहीं, यह क्यों नहीं हो पा रही है, क्या कारण है ? यह मन प्रलोभन देने में बहुत पक्का है। तुम इसकी मुनना मत, इमकी मुनने बैठे तो विकल्पों में ही ठहर जाओगे और अनुभूति की तो बात ही दूर, ज्ञानापने में भी वंचित रह जाओगे। तुम तो जानने वाले पर ही जोर देने के पुस्पार्थ में संलग्न रहना एक दिन स्वानुभव तो स्वयमेव ही अनायाम हो जाएगा, तुमने कभी सोचा भी न होगा, कल्पना भी न की होगी कि ऐसा भी कभी हो सकता है।
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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