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________________ मोम-अधिकार शार्दूलविक्रीडित त्यक्त्वाऽशुद्धिविधायि तकिल परद्रव्यं समग्र स्वयं स्वद्रव्ये रतिमेति यः स नियतं सर्वापराषच्युतः । बन्धध्वंसमुपेत्य नित्यमुक्तिः स्वज्योतिरच्छोच्छलञ्चतन्यामृतपूरपूर्णमहिमा शुद्धो भवन्मुच्यते ॥१२॥ राग-द्वेष-मोह म्प अशुद्ध परिणति में भिन्न होता हुआ सम्यग्दृष्टि जीव मकल कर्म का क्षय करके अतीन्द्रिय मुख जिसका लक्षण है उस मोक्ष को प्राप्त होता है। ऐसा सम्यग्दष्टि जीव ज्ञानावरणादि पुद्गल कर्मों की बंधरूप पर्याय की सत्ता को नाग करता है तथा द्रव्यकम, भावकर्म, नोकर्म में प्राप्त सामग्री के ममत्व का मूल में स्वयं छोड़कर निश्चय से द्रव्य के निर्मल म्वभाव वाले चंतनागुण के अतीन्द्रिय मुख में धाराप्रवाहरूप परिणमन करता है, उममें तन्मयी है और वह सर्वकाल अतीन्द्रिय मुख स्वरूप है ऐसा उसका माहात्म्य है। वह अवश्य ही जितने भी सूक्ष्म अथवा स्थूल राग-द्वेप-मोह परिणाम हैं उनमे सब प्रकार रहित है। वह सम्यग्दृष्टि जीव शुद्ध चैतन्य के निर्विकल्प अनुभव मे उपजे मुख में मग्न है। भावार्थ-मवं अशुद्धपन के मिटने पर शुद्धपना होता है और सम्यक्दृष्टि का शुद्ध चिद्रूप के अनुभव का सहारा है. ऐसा मोक्षमार्ग है ॥१२।। चौपाई-जे ममकिती जीव समवेती। तिनको कया कहूं तुम सेती॥ जहां प्रमाद किया नहि कोई । निरविकल्प अनुभौ पद सोई॥ परिग्रह त्याग जोग थिर तीनों। करम बंध नहि होय नवीनो॥ जहां न राग द्वेष रस मोहें । प्रगट मोल मारग मुख सोहे। पूरब बंध उदय नहिं व्यापे। जहां न मेव पुण्य प्ररु पापे । द्रव्य भाव गुण निर्मल धारा । वोष विधान विविध विस्तारा॥ जिन्हके सहज अवस्था ऐसी। तिन्हके हिरो दुविधा कमी। मुनि अपकमि चदि धाये। ते केवलि भगवान कहाए। बोहा-हविषि जे पूरण भए, अष्टकर्म बन बाहि। तिन्हको महिमा जे लखें, नमें बनारसि ताहि ॥१२॥
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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