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________________ मोक्ष-अधिकार १६३ श्लोक परद्रव्यग्रहं कुर्वन् बध्येतवापराधवान् । बध्येतानपराधो न स्वद्रव्ये संवृतो मुनिः ॥७॥ शद्ध चिद्रप के अनुभव में जो जीव भ्रप्ट है. वह जानावरणादि को को बांधता है। क्योकि वह शरीर-मन-वचन, गगादि अशुद्ध परिणामों में अपनेपन की बद्धि रूप म्वामित्व करता है। कम के उदय के भाव को आत्मा के रूप में नही अनुभव करने वाला.. परद्रव्य में विरक्त सम्यग्दृष्टि जीव ज्ञानावरणादि कमों के पिण्ड को नहीं बांधना। भावार्थ-जैसे कोई चोर पर वस्न चगता है नो गुनहगार होता है, और गुनहगार होने में बांधा जाता है। उसी तरह मिथ्यादृष्टि जीव परद्रव्यरूप जो द्रव्यकर्म, भावकम तथा नोकर्म हैं उनको अपना जानकर अनुभव करता है। परमार्थ दष्टि में देखा जाए तो वह गुनहगार है। इसीलिए ज्ञानावरणादि कर्मों का बन्धक है। सम्यग्दष्टि जीव गे भावां मे हित है । वह अपने आत्मद्रव्य में संवररूप है अर्थात् आत्मा में ही मग्न है ।।७।। दोहा-जगे पुमान परधन हरे, मो अपराधी प्रज। जो अपनो धन व्यवहरे, सो धनपति मर्वज ॥ पर को संगति जो ग्चे, बंध बढ़ावे मोय । जो निज सत्ता में मगन, सहज मुक्त मो होय । उपजे वनसे थिर रहे, यह तो वस्तु बखान । जो मर्यादा वस्तु की, सो मत्ता परमान ॥७॥ मालिनी अनवरतमनन्तंबंध्यते सापराधः स्पृशति निरपराधो बन्धनं नैव जातु । नियतमयमशुद्ध स्वं भजन्सापराधो भवति निरपराधः साधुशुद्धात्मसेवी ॥८॥ ऐसा मिथ्यादृष्टि जीव जो उन पुद्गल कर्मों को जो परद्रव्यरूप है आप रूप जानता है वह अखण्ड धागप्रवाहरूप, गणना से अतीत (परे) मानावरणादिरूप पुद्गल वर्गणा से बांधा जाता है। परन्तु सम्यग्दृष्टि जीव जो शुद्ध स्वरूप का अनुभवन करता है किसी भी काल में ऊपर कह हुए कर्म
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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