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________________ मोक्ष-अधिकार १५७ ज्ञानगुण जीव को शुद्धस्वरूप के अनुभवरूप परिणमन करवाता है वह मोक्ष का कारण है । इसका समाधान यह है कि जीव के शुद्ध स्वरूप के अनुभवरूप जो ज्ञान है वह जांव के शुद्ध परिणमन को सर्वथा लिए है अर्थात् जिसका शुद्धरूप परिणमन होता है उस जीव को शुद्ध स्वरूप का अनुभव अवश्य होता है. इसमें धोखा नहीं है। इसके अतिरिक्त किसी भी प्रकार से अनुभव नही हो सकता। इसलिए शुद्ध स्वरूप का अनुभव माक्ष का कारण है । यहाँ मिथ्यादृष्टि जीव जो नाना प्रकार के विकल्प करते है उनका समाधान इस प्रकार करते हैं। कोई कहना है कि जीव का स्वरूप और बन्ध का स्वरूप जान लिया तो मोक्षमार्ग हो गया, कोई कहता है कि बन्ध के स्वरूप को जान कर ऐसा चितवन करे कि बन्ध कब मिटंगा, कैसे मिटंगा, ऐसी चिता ही मोक्ष का कारण है । ऐसा कहने वाने जीव झूठ है, मिध्यादृष्टि है । वस्तु स्वरूप ऐसा ही है कि जीव का ज्ञान गुण हो वह छेनी है जिसके द्वारा वह आत्मा के शुद्ध स्वरूप को भिन्न अनुभव करके उसी रूप परिणमन करने में समर्थ है । भावार्थ सामान्यत दो का छेद तो छेनी के द्वारा ही होता है । यहाँ भी जीव और कर्म दो का छेद किया है वह दो रूप छेद करने तथा स्वरूप का अनुभव करने में समर्थ ज्ञानरूप छैनी है । और तो कोई दूसरा कारण न हुआ है और न होगा। ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर और मिथ्यात्व कर्म का नाश होने पर शुद्ध चैतन्य स्वरूप में अत्यन्त पैठ जाने की जिसकी सामर्थ्य है वह प्रज्ञा (ज्ञान) छेनी, यद्यपि चेतना मात्र तथा द्रव्य कर्मो के पुद्गल पिण्ड यानी माह-राग-द्वेषरूप अशुद्ध परिणति दोनों मिल कर एक क्षेत्रावगाह हैं, बंध पर्यायरूप है, अशुद्ध विकाररूप परिणमन कर रहे हैं परन्तु उनमें जो संधि है वे निधि नही हुए है उसमें पैठ कर दानों का भिन्न-भिन्न छंद करती है । भावार्थ - यद्यपि लोहे की छेनी अत्यन्त पैनी होती है तो भी संधि को देखकर उसमें देने से दो को अलग करती है । उसी प्रकार सम्यकदृष्टि जीव का ज्ञान अत्यन्त तीक्ष्ण है इसलिए जीव और कर्म के बीच जो संधि है उसमें प्रवेश करके पहले बुद्धि में अलग कर देता है और बाद में सभी कर्मों का क्षय होने पर साक्षात् अलग-अलग कर देता है । परन्तु जीव और कर्मों के बंध में संधि बड़ी सूक्ष्म है । विवरण - ब्रव्य कर्म हैं - ज्ञानावरणादि पुद्गल के पिण्ड । वह यद्यपि एक क्षेत्रावगाह हैं परन्तु ऐसा विचारने से जीव में भिन्न होने की प्रतीति होती है कि द्रव्य कर्म पुद्गल पिण्ड रूप हैं । यद्यपि वह जीव के साथ एक क्षेत्रावगाह रूप हैं तथापि (उनके तथा जीव के) भिन्न-भिन्न प्रदेश है, पुद्गल पिण्ड अचेतन हैं, बंधे भी हैं I
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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