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________________ १३८ समयमार कलश टोका तन्नाकस्मिकत्र किचन मवेतभीः कुतो ज्ञानिनो । निःशंकः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ॥ २८ ॥ सम्यकदृष्टि जीव उम शुद्ध चैतन्य वस्तु का त्रिकाल में भास्वादन करना है जो महज ही उपजा है, अबड धारा प्रवाह रूप है और बिना उपाय किए ऐसी ही वस्तु है । सम्यकदृष्टि जीव विचारता है कि शुद्ध चैतन्य जिसका लक्षण कहा है. उसका अकस्मात् एक वस्तु अन्य वस्तु होना है ही नहीं । इसलिए सम्यकदृष्टि जीव को अकस्मात् अनिष्ट हो जाने का भय कहां में होगा ? अपितु नहीं होगा। शुद्ध जीव वस्तु अपने सहज भाव में जितनी है उननी है, जैसी है वैसी है। जितनी भी अतीत, अनागत, वर्तमान काल गोचर है उसमें निश्चय में ऐसी ही है। शुद्ध वस्तु में और कंसा भी स्वरूप नहीं होता है। ज्ञान विकल्प मे रहिन है, उसका न आदि है न मन्त है, वह अपने स्वरूप में विचलित नहीं होना और निष्पन्न है ||२८|| . वर्ष- शुद्ध बुद्ध प्रविरुद्ध महज सुसमृद्ध सिद्ध सम । प्रन्नख प्रनादि अनंत, प्रतुल प्रविचल स्वरूप मम । चिदविलास परकाया, वीत विकलप सुख थानक । जहां दुविधा नहि कोड, होइ तहां कछु न प्रचानक । जब यह विचार उपजंत तब, प्रकस्मात भय नह उदित । ज्ञानी निशंक निकलंक निज, ज्ञानरूप मिरवंत नित ||२६|| 9 मंदाक्रांता टंकोत्कोस्वरसनिचितज्ञानसर्वस्वमाजः सम्बग्दृष्टेयदिह सकलं घ्नन्ति लक्ष्मासि कर्म । तत्तस्यास्मिन्पुनरपि मनाक कर्म्मणो नास्ति बन्धः सूर्योपासं तदनुभवतो निश्चितं निर्जव ॥ २६ ॥ जिस जीव ने शुद्ध रूप परिणमन किया है उसमें विद्यमान जो निःशंकित, निकाक्षिन, निविचिकित्सा अमूढदृष्टि, उपग्रहन, स्थितिकरण, वात्सल्य, तथा प्रभावनांग ये आठ गुण हैं व ज्ञानवरणादि अष्ट प्रकार के पुद्गल द्रव्यों के परिणम का हनन कर देते है । अतः, 1 ' : भावार्थ- सम्यकष्टि जांव के जा भी कोई गुण हैं, वे सब सुद्ध परिणमन का है इसलिए उनसे कनेक निर्जरा है । इस लिए सम्यकदृष्टि 1
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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