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________________ निर्जरा अधिकार मान शाश्वत है, एकल्प है, अभेद है। अपनो सामयं मे उसका जो वेदन करता है, वही वेदन कर्ता है। भावार्थ-जीव का स्वरूप ज्ञान है जो एकका है । साना-असाता कर्मों के उदय मे जो मुख-दुन कप वेदन होता है, वह जीव का ग्वरूप नही है इसलिए मम्यकदृष्टि जीव को रोग उत्पन्न होने का भय नहीं हाता ॥२४॥ वर्ष-वेदनहारो जोव, जाहि वेदंत सोउ जिय । एह बेदना अभंग, सो तो मम प्रंग नाहि विय। करमबेदना दिविष, एक सुखमय दुतीय । रोउ मोह विकार, पुरगलाकार बहिर्मत। बब यह विमान में परत, सबनबेदना भय विक्ति । मानी निशंक निकलंक निज, मानरूप निरखंत नित ॥२४॥ शाईनविकीडित यसबाशमुपैति तग्न नियतं ज्योति वस्तुस्थितिहनिं सत्स्वयमेव तत्किल ततस्त्रातं किमस्यापरः । अस्यात्राणमतो न किञ्चन भवेत्तीः कुतो मानिनो निःशरः सततं स्वयं स सहजंहानं सदा विन्दति ॥२५॥ सम्यकदृष्टि जीव उस शुद्ध स्वरूप का त्रिकालरूप में अनुभवन करता है, आस्वादन करता है, जो ज्ञान निरन्तर वर्तमान है, अनादि निधन है और बिना कारण द्रव्यल्प है। मेरा कोई रक्षक नहीं है--सम्यकदृष्टि जीव ऐसे भय में रहित है। सम्यकदृष्टि जोव को मेरा कोई रक्षक है या नही सा भय क्यों होगा. अपितु नहीं होगा। इस कारण मे जीव वस्तु के परमाणुवात्र भी अरक्षकपना नहीं है। क्योंकि जो कुछ सना म्वरूप वस्तु है वह तो विनाश को प्राप्त नहीं होती। इस कारण से वस्तु का अविनम्वरपना निश्चय ही प्रगट है। जीव का शुद्ध स्वरूप महज हो सता रूप है। इसलिए किमी द्रव्यानर के भय में उसकी रक्षा कोई क्या करना ? । भावार्थ--मेरा रक्षक कोई है या नहीं ऐसा भय मम्यकदृष्टि जीव को नहीं होता इसलिए ऐसा अनुभव होता है कि शुरु स्वरूप सहज ही शाश्वत है इसका कोई क्या रखेगा ॥२५॥ बर्ष-गोस्ववस्तु सत्ता स्वल्प, जगमाहि त्रिकालगन । तास पिनास होय, सहत निश्चय प्रमाण मत ।
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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