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________________ नियर-अधिकार १२६ शार्दूलविकाड़ित मानिन् कर्म मनातु कर्तमुचितं किश्चित्तपापुज्यते भुने हन्त न जातु मे परिरक्त एपालि मोः । बन्यः स्यादपमोगतो पनि तकि कामचारोऽस्ति ते मानं सन बस बन्यमेष्यपरषा स्वस्थापरापारभषम् ॥१६॥ सम्यग्दृष्टि जीव किसी भी प्रकार, कभी भी, ज्ञानाबरणादि पुदगल. कर्म शिबाँधने के योग्य नहीं है। भावार्य-सम्यग्दृष्टि जीव के कर्मों का बन्ध नही है तो फिर विषद क्या है? वह वचनों के दाग कहते है। यदि कोई यह बान कर भोग सामगो का भोग अपवा पन्द्रिय के विषयों का सेवन करता है किम कर्म का बध नहीं है की है जीव, गेमा ममम कर भोगी का भोग करना भला नही है। जहाँ भोग सामग्री भोगते भी नानापरणादि कर्मों का बन्ध नही होता वहां सम्यकदष्टि जीव का ऐसा स्वेच्छाचारी बाचरण कंमे होगा--अपितु ऐसा नहीं होगा। भावार्ष.. सम्बन्दृष्टि जीव राग-ष-मोह मे गहन है। वहीं सम्यग्दृष्टि जीव जब सम्यक्त्व छूटने पर मिथ्यात्वरूप परिणमन करता है तो भानावरणादि को का अवश्य बन्ध करता है। इस प्रकार मिप्यावृष्टि होता हवा हो वह रागब-मोहल्प परिणमन करता है, ऐमा कहा है। सम्यकदृष्टि होता हुमा जितने समय प्रवर्तन करता है उनने समय बन्ध नहीं होता । मियादृष्टि होता हुमा अपने ही रोष मे रागादि बारम्प परिणमन के बग मानावरणादि को का बन्ध करता है ॥१६॥ नवंबा-गोनों जामको चित तोलों माहिर होत, बरते मियाब तब मामा बन्यहोहि । ऐतोर सुनके नयो विषय बोलना, बोगनित न की लत विवाह है। दुनो या संत हे समकितवंत, महतो एवंत परमेपरही है। सिविल होहि अनुगौला पारोहि, मोल मुसोहि होहि ऐसी मति सोही है।
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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