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________________ निर्जरा-अधिकार १२१ साक्षान्मोन इदं निरामयपदं संवेरमानं स्वयं शानं ज्ञानगुरणं विना कथमपि प्राप्तुंभमन्ते न हि ॥१०॥ जो जीव शुद्ध स्वरूप के अनुभव से भ्रष्ट है, वह जैसा कि पहले कहा है, शुद्ध स्वरूप के अनुभव के अतिरिक्त चाहे हजार उपाय क्यों न करे तो भी समस्तभेदविकल्प मे रहित ज्ञानमात्र वस्तु को पाने में निश्चय ही असमर्थ है। प्रत्यक्षरूप मे, सर्वथा प्रकार, मोक्ष का स्वरूप जितने भी उपद्रव, बनेश है उन सबमे रहित है और स्वयं अपने द्वारा आस्वादन करने योग्य है। भावार्य मानगुण, ज्ञानगुण के द्वारा ही अनुभव करने योग्य है। इसके अतिरिक्त किमी भी अन्य कारण मे ज्ञानगुण ग्राह्य नहीं है । मिथ्या. दृष्टि जीवराशि के विगद्ध शभोपयोगम्प परिणाम हैं, जैनोक्न मूत्रों का अध्ययन है, जीवादि द्रव्यों के स्वरूप का बारंबार स्मरण करता है. तथा पंचपरमेष्ठी की भक्ति इन्यादि भी करता है । परन्तु वह अनेक क्रियाओं को करके बहुन कायकष्ट करे ता करे परन्तु शुद्ध म्बम्प की प्राप्ति तो शुद्ध जान के द्वारा ही महज होगी। मिथ्यादष्टि को सभी क्रियाएँ कष्ट माध्य हैं । भावार्थ-जितनी भी क्रियाएं हैं सब दुःखात्मक है, शुद्ध स्वरूप के अनुभव की भांति मुखस्वरूप नहीं हैं । सकल क्रियाओं का पालन करना परंपरा से मोक्ष का कारण है यह जो भ्रम उपजता है वह झठा है। मिथ्यादृष्टि जीव ने हिमा, झठ, चोरो, अब्रह्म (कुशील) तथा परिग्रह में रहित रहकर महा परीषह । भार सहा, उस आचरण के बहुत बोझ से बहुत काल तक दब-दब के मरा या चूर हुआ, बहुत कष्ट झंले तो भी यह सब करने से उसके कर्मों का क्षय तो नहीं है ।॥१०॥ संबंया-कोई कर कष्ट महे तपसों शरीर बहे, धूम्रपान करे प्रषोमुल हके झूले है। कई महावत गहे क्रिया में मगन रहे, बहे मुनिभार पयार कैसे पूले है। इत्यादिक जीवनिकों सबंधा मुरुति नाहि, फिर जगमा ह ज्यों क्यार के बबूले हैं। जिन्ह के हिये में शान तिन्हहीको निरवाण, करम के करतार भरम में मूले है॥ रोहा-लीन भयो ग्यवहार में, युक्तिन उपजे कोय । बीन भयो प्रभ पर जपे, मुक्ति कहाँ ते होय ॥
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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