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________________ ११८ समयसार कलशटीका जीव प्रत्यक्षरूप में जानता है कि चार गतियों की पर्याय, राग-द्वेष-मोहसुख-दुख रूप इत्यादि जितने भी अवस्था भंद है वे कोई भी जीव का अपना स्वरूप नहीं हैं, उपाधिरूप है, विनश्वर है और दुखरूप हैं। भावार्थ - शुद्ध चिप उपादेय है, अन्य समस्त देय है ||3| दोश-जो पद भव पद हरे को पद से अनूप । जिहि पद परमन श्रौर पद, नगे आपदा रूप ||७|| शार्दूलविक्रीडित एकनायक भावनिर्भर महाम्वाद समासादयन् स्वावं द्वन्दमयं विधातुनग्रहः ग्वां वस्तुवृत्ति विदन् । प्रात्मात्मानुभवानुभावविवश भ्रश्यविशेषोदयं सामान्यं कलयत्किलंय मकलं ज्ञानं नयत्येकतां ॥८॥ वस्तुरूप में चेतन द्रव्य ऐसा है कि मतिज्ञान, धनज्ञान, अवधिज्ञान, मन पर्ययज्ञान, केवलज्ञान आदि पर्यायों में जो ज्ञान का जितना भी अनेक विकल्परूप परिणमन है उसको निविकल्परूप से अनुभवन करता है । भावार्थ - जैसे उष्णता मात्र अग्नि है परन्तु जलने वाली वस्तु को जलाते समय उसी के आकार में परिणमन करता है। इसलिए लोगों को ऐसा ख्याल उपजता है कि जैसे काट की आग, छप्पर की आग, तृण की आग इत्यादि । सो ऐसा सब विकल्प झुटा है। वस्तुरूप से आग का विचार करें तो उष्णतामात्र आग है । उसी में एकरूप है। उसी प्रकार ज्ञानचेतना तो प्रकाशमात्र है । समग्न ज्ञेय वस्तुओं को जानने का उसका स्वभाव है । इसलिए समस्त ज्ञेय वस्तुओं को जानना और जानने हुए ज्ञेयाकार परिनमन करता है। इस प्रकार ज्ञानी जावा की ऐसी बुद्धि उपजती है कि मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन पर्ययज्ञान, केवलज्ञान आदि ज्ञान के मंद सब झूठे विकल्प है । ज्ञय वस्तु की उपाधि मे मति श्रुत-अवधि- मन:पर्यय- केवल ऐसे विकल्प उपजाने है क्योंकि शेयवस्तु नाना प्रकार की है । जैसे शेय का जानना होता है. ज्ञान वैसा ही नाम पाना है । वस्तु स्वरूप का विचार करें तो वह ज्ञान मात्र है। अन्य नाम धरने सब झूठे हैं ऐसा अनुभव शुद्ध स्वरूप का अनुभव है। ऐसा अनुभवशील आत्मा निर्विकल्प चेतनद्रव्य में अत्यन्त मग्न है, अनाकुलित सुख का आस्वादन करती है. कर्म के संयोग से हुए विकल्परूप - आकुलतारूप इन्द्रियों के विषय जनित -
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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