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________________ निर्जरा-अधिकार ११५ भोगते है वे परिणामों में चिकने है। मिथ्यान्व भाव का ऐमा ही परिणाम होता है इसमें किमी का नारा नहीं है। वे जीव जो सा मानते है कि हम भी सम्यग्दष्टि जमे है और हम भी विपया का मुख मांगते हा कर्म का बन्ध नही है, तो वे जीव धोग में गई है। मिथ्यादष्टि जीवराशि शुद्धात्मस्वरूप के अनुभव मे गून्य ;' और गद ननन्य वस्तु तथा द्रव्यकर्म, भावक मं, नोकर्म के हेयोपादेयना और उनके भिन्नरूप का जानना न होने से शरीर व पंचद्रिय के भोगों-मुखों में अवश्य रजा है, कोटि उपाय भी करें तो अनन्तकाल तक पापमय है, ज्ञानावरणादि कमां का बन्ध्र करते है. महानिद्य है। भावार्थ-मिध्यादष्टि जीव के मद्ध वस्तु के अनुभव को शक्ति नही होती ऐसा नियम है इसलिए मिथ्यादाट जीव कर्म के उदय को ही अपना (स्वरूप) जानकर अनभवन करता है। वह मात्र पर्याय में अत्यन्त रत है इसलिए मिथ्यादष्ट मथा गगा होता है, ओर गगी होने में कर्मबन्धका करता है। वह जो अपने आपको स्वय ही मम्यग्दष्टि कह कर मानता है कि अनेक प्रकार के विषय मखां को भोगते हा भी हमें तो कर्म का वन्ध नहीं है--सा जीव यह मानना है तो मानों नथापि कर्म बन्ध तो है। वह मह ऊंचा करके गाल फुलाकर कहे कि मैं मम्यवादीष्ट है या मोन रह कर अथवा थोड़ा बोलकर या अपने आपको हीन दिखाकर. मयानेपन में, सावधानी से ऐसा दिखाए यह मब नो उमको प्रकृति है, ग्वभाव है। परन्तु गगी होते हुए नो मिध्यादष्टि ही है। कमों का बन्ध करना है। भावार्थ-जो जीव पर्यायमात्र में रत हैं वे मिथ्यादष्टि है। यह उनकी प्रकृति का ग्वभाव है कि हम सम्यग्दृष्टि हैं, हमको कर्मों का बन्ध नहीं होता। कोई नो मह में बोल कर गग्जता है, कोई ग्वभावतः मान रहता है, कोई बोलता है। मो यह सब प्रकृति का स्वभाव है । इममें परमार्थ ना कुछ भी नहीं है। जितने काल तक जीव पर्याय में अपनेपन का अनुभव करना है. उननं काल तक मिथ्यादृष्टि है, कर्मों का वध करता है ।।५।। संबंया-जो नर मम्यकदन्त कहावन, सम्यकमान कला नहीं जागी। मातम अंग प्रबन्ध विचाग्न, भारत संग कहे. हम त्यागी मेव घरे मुनिराज पटंतर, नंतर मोह महानल बागी।
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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