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________________ निजंग-अधिकार गरीर नया इन्द्रियों के विरों में भोगों को निजंग हो उहगता है और निजंग ही होती है। जिसमे आगामा कम तो नहीं बधने और पिछले कम उदय में आकर फल देकर गमन निजंग का प्राप्त हो जाते है। इसलिए गम्यग्दष्टि जीव के भोग निजगर कारण है ।।।। दोह-महिमा मम्यक जान को प्रा विगग बल जोय । क्रिया करत फन भजते, कम बन्ध न होय ।। मया जैसे भूप कौतुक म्वरप करे नोच कर्म, कौतुक कहावे तासो कौन कहे. रंक है। जैसे व्यभिचारिणी विचारे व्यभिचार वाको, जारही मां प्रेम भरतार मों चित्त बंक हे ॥ जमे धाई बालक चुघाई करे लालपाल, जाने तांहि प्रौर को जदपि बाके अंक है। से जानपन्त नाना भांति करतूति ठाने, किरिया को भिन्न माने याते निकलंक है ॥२॥ रथोद्धता नाश्नुते विषयसेवनेऽपि यत् स्वं फलं विषयसेवनस्य ना। ज्ञानवंभविरागतावलात्सेवकोऽपि तदसावसेवकः ॥३॥ इस प्रकार सम्यग्दृष्टि जाव कम के उदय में प्राप्त शरीरादि पन्चन्द्रिय विषय मामग्री को भीगता है नथाप नहीं मांगता है। क्योकि सम्यग्दृष्टि जीव पचन्द्रिय सम्बन्धी विषया का गबन ना करता है परन्तु उनके सेवन का फल जो ज्ञानावग्णादि का कमंबन्ध है. उमको नहीं पाता है। एसी उसके गद्ध स्वरूप के अनुभव की महिमा है। विपया का मुख कम क. उदय में होता है, जोव का स्वरूप नहीं है इसलिए उसका विपया के मुख से रतिभाव पैदा नहीं होता। भावार्थ-मभ्यग्दृष्टि जीव जो भाग भोगता है वह भी निगरा का निमित्त है ॥६॥ सोरठा-पूर्व उ सम्बन्ध, विषय भोग बे समकिती। करेन नूनन बंध, महिमा मान विगग की। मंदाक्रांता सम्यग्दृष्टेभंवति नियतं जानवराग्यशक्तिः बस्तुत्वं कर्नायतुमयं स्वान्यरूपाप्तिमुक्त्या ।
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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