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________________ ( १० ) श्रात्मा के बारे में जानकारी संमार में मुख्य दो द्रव्य हैं जीव व पुद्गल । जीव अनन्त है, पुद्गल अनन्तानन्त है। अनादि काल से जीव के साथ द्रव्य कर्म का संयोग पाया जाता है और उस द्रव्य कर्म के उदय में आत्मा के साथ शरीर का व उससे सम्बन्धित अन्य चंतन व अचेतन पदार्थों का सम्बन्ध होता है । यह जीव स्वयं को एक अमृत्तिक चैतन्य न पहचान कर शरीर व पर पदार्थ रूप अपने को मान लेता है तो अनेक प्रकार की इच्छाओं का इसमें जन्म होता है safe आत्मा तो एक त्रिकाली नित्य और ध्रुव द्रव्य है पर शरीर के साथ गंग, जन्म जग, मरण, भूख प्यास सर्दी-गर्मी आदि की अनेक समस्याएँ हैं और उन भूख प्यास आदि के शमन के लिए जीव अनेक इच्छाएं उठाता है । फिर उन इच्छाओं की पूनि में जो कुछ भी सहकारी होता है उसमें यह राग ओर जो कुछ प्रतिकूल पड़ता है उसमें यह द्वेष कर लेता है अतः राग द्वेष आदि अनेक विकारी भाव भी आत्मा में पाए जाते हैं। इस प्रकार अनादि काल से ही जीव के साथ द्रव्यकर्म व उस द्रव्यकर्म के उदय के कारण राग द्वेष आदि भाव कर्म व शरीरादि नोकर्म और शरीर से सम्बन्धित अन्य चेतन व अचंतन पदार्थों का संयोग पाया जाता है। बाहर में चेतन अचेतन पदार्थों का संयोग अपने-अपने पाप-पुण्य के उदय के अनुसार शुभ व अशुभ होता है, शरीर को क्रिया भी शुभ व अशुभ होती हैं और भाव भी शुभ अशुभ दो तरह के होते हैं पर यह सारा काम द्रव्य कर्म के उदय का है, यह समस्त कर्मधारा है इसमें चेतना का अपना कुछ भी तो नहीं । चेतन ज्ञान, दर्शन, मुख, वीर्य आदि अनन्त गुणों का पिण्ड है पर ज्ञान गुण उसमें मुख्य है क्योंकि वह ज्ञान गुण स्व पर प्रकाशक है अतः चेतन ज्ञाता मात्र है और उसका काम मात्र जानने देखने का है । यह ज्ञानधारा चल रही है प्रत्येक व्यक्ति में पर ज्ञान स्वयं को पहचानता नहीं, किसी निद्रा में है. मूछिन है और गहना होकर कर्मधारा में अपनापन मान लेता है । परन्तु कर्मधारा में अर्थात् शुभ अशुभ आदि विभाव और शरीर में अपनापन मानते हुए भी ज्ञान रूप चैतन्य कभी .भी राग-द्वेष रूप या शरीर रूप नहीं होता, सदैव चैतन्य हो बना रहता है जैसे घो के साथ मिट्टी मिली हुई है ओर अब उसको आपने गर्म कर दिया । मिट्टी से मिला होने पर भी घी तो घो हो है, मिट्टी अलग द्रव्य है और घा अलग एवं गर्म होते हुए भी वह घी अपने स्वभाव में अर्थात् चिकनेरने में ही विद्यमान है। गरमपने के अभाव में भो चिकनेपने को अर्थात् घो की उपलब्धि
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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