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________________ पुण्य-पाप एकत्व द्वार नारकी, नियंच या हीन मनुष्य होता है जहां अनिष्ट करने वान विषयों के मयांग से दुःख पाता है जो अशुभ कर्मों का स्वाद है । शुभ कर्म के उदय से जीव देव या उत्तम मनुप्य होता है। वहां इष्ट करने वाले विषय संभोग रूप मुख को पाता है, जैसा शभ कम का स्वाद है। तो यह स्वादभेद है। अव फल की प्राप्ति के विचार में भी भेद है---अशुद्ध कर्म के उदय से हीन पय्याय होती है और अधिक मंक्लेश होकर संसार की परिपाटी बनती है। गभ कम के उदय में उत्तम पर्याय होती है, जहा धर्म की सामग्री मिलती है जिसमें जाव मोक्ष जाता है। तो इस तरह मोक्ष की परिपाटी दाम कम है। ऐसा कोई मिथ्यावादी मानते हैं जिसका उत्तर इस प्रकार है...... कोई कर्म शुभरूप है, कोई कर्म अशुभरूप है एसा कोई अन्तर या मंद नहीं है । कर्म के बंध के कारण जो शुभ परिणाम या मलंग परिणाम हैं, वे दोनों ही परिणाम अशुद्धरूप हैं, अज्ञानरूप है । अतः दोनों के कारण में कोई भंद नहीं है। कारण एक ही है। स्वभाव के विचार से शुभकर्म और अशमकर्म ऐसे दोनों कर्म पुद्गल पिडरूप है इसलिए दानों का एक ही स्वभाव है-स्वभाव का भेद भी नहीं है। अनुभव अर्थात उनके रस में भी भेद नहीं है- शुभ कर्म के उदय में जीव बंधा और मुखी है, अशुभ कर्म के उदय से भी जीव बंधा और दुःखी है। दोनों ही दशाओं में बंधा है- इसमें विशेष अन्तर कोई नहीं है। आश्रय अर्थात् फल की प्राप्ति के विचार में भी एक ही हैं, कोई विशेष अन्तर नहीं है-शुभ कर्म के उदय में संसार परिपाटी बनती है वैसे ही अशुभकर्म के उदय में भी संसार की ही परिपाटी बनती है। इस प्रकार यह अर्थ ठहरा कि कोई कम भला, कोई कम बुरा---सा नहीं है. सभी कर्म दःखरूप है। कर्म निःसन्देह बन्ध को करने वाले है, सा गणधरदेव ने माना है। इस प्रकार निश्चय मे जितनी भी कर्मजाति है, स्वयं ही बन्ध रूप है। भावार्थ- जो स्वयं मुक्त स्वरूप होगा वही कदाचित् मुक्ति को कंगा । कर्म जाति अपने आप ही बन्ध पर्यायरूप, पुद्गल पिंडरूप, बंधी है, सो वह मुक्ति कहां में कर सकती है । इसलिए कम गर्वथा वधमार्ग है ॥३॥ सबंया-संकिलेस परिणामनिसों पाप बन्ध होय, विशद्धसों पुन्यबन्ध, हेतु भेद मानिए। पाप के उद प्रमाता ताको हैं कटक म्वाद, गुन्य उ माता मिष्ट ग्यभेद जानिए । पाप संक्लेिस स्प पुन्य है विशुद्ध रूप, दुहं को स्वार भिन्न भेद यों बसानिए ।
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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