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________________ ७० समयसार कलश टोका विज्ञानंकरमः स एष भगवान् पुष्यः पुराणः पुमान्, ज्ञानं दर्शनमध्ययं किमथवा यत्किचनकोऽप्ययम् ॥ ४८ ॥ शुद्ध स्वरूप आत्मा अपने ही शुद्ध स्वरूप में परिणमन करता है । यार्थिक ओर पर्यायार्थिक विकल्पों का बिना पक्षपात किए, त्रिकाल ही एकरूप रहने वाला निर्विकल्प शुद्ध चैतन्य आत्मा, जो उसका शुद्ध स्वरूप है वैसा ही परिणमित होता है । भावार्थ जिनने नय हैं वे सब श्रुतज्ञान के विषय हैं और श्रुतज्ञान परोक्ष है जबकि अनुभव प्रत्यक्षज्ञान है । इसलिए श्रुतज्ञान से रहित जो ज्ञान है वह प्रत्यक्ष अनुभव ही है। इस प्रकार प्रत्यक्षरूप में अनुभव के द्वारा जो शब्द स्वरूप आत्मा का ज्ञान होता है वही ज्ञान पुज वस्तु है । वही परब्रह्म परमेश्वर है, वही पवित्र पदार्थ है, वहीं अनादिनिधन वस्तु है, वहीं सम्यग्दर्शन व सम्यक्ज्ञान है बहुत क्या कहें- शुद्ध चैतन्य वस्तु की प्राप्ति जो कुछ कहीं वही है, जैसे कहो वैसे ही है। भावार्थजो शुद्ध चैतन्य वस्तु प्रकाशमान, निविकल्प, एकरूप है उसकी महिमा का वर्णन करने के लिए अनन्त नाम भी कह तो वे सब घटित होते हैं, परन्तु वस्तु ता एक रूप है। वह शुद्ध स्वरूप आत्मा निश्चल ज्ञानी पुरुषों के द्वारा स्वयं अपने में ही अनुभव में आता है ।। ४८ ।। सर्वया -- द्रार्थिक नय पर्यायायिक नय दोउ, श्रुतज्ञानरूप भूतज्ञान तो परोल है । शुद्ध परमात्मा को प्रनुभी प्रकट ताते, प्रतुभौ विराजमान प्रनभौ प्रदोल है ॥ अनुभौ प्रमारण भगवान् पुरुष पुराण, ज्ञान प्रौ विज्ञानघन महा सुख पोष है । परम पवित्र यो अनंत अनुभौ के, अनुभी बिना न कहूं और ठौर मोल है । शार्दूलविक्रीडित दूरं मूरि विकल्पजालगहने भ्राम्यन्निजौघान्च्युतो, दूरादेव विवेकनिम्नगमनान्नीतो निजोधं बलात् । विज्ञानंकरमस्तदेकर सिनामात्मानमात्माहरन्नात्मन्येव सदागतानुगततामायात्ययं तोयवत् ॥४६॥
SR No.010810
Book TitleSamaysaar Kalash Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasen Jaini
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1981
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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