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________________ चतुर्थ षड्जीवनिका अध्ययन (११) प्रथम अहिंसा महाव्रत चौपाई- प्रथम महावत में भगवंत, प्राणि-घात से होऊ विरंत । भगवन्, तजू सकल जिय-घात, हों या सूक्ष्म धूल बहु भात ॥१॥ स्वयं करत नहिं उनका घात, नहीं कराऊ परसे घात । जो करते हैं पर अतिपात. अनुमोदन न करू जगतात ॥२॥ तीन योग शिकरण सम्हार, कर कभी नहिं जीव-संहार ।। नहीं कराऊं प्राण-संहार, अनुमोदूं नहिं पर-संहार ॥३॥ दोहा- भूतकाल के घात से, भगवन् ! होऊ निवृत्त । निन्दा गरिहा करहिं के, होऊ त्याग-प्रवृत्त । पाई- प्रथम महावत में इह भात, भया उपस्थित हे जग-त्रात । यह हिंसा परिहार-स्वरूप, प्रथम महावत है व्रत-भूप ॥१॥ . अर्थ- भते, पहिले महाव्रत में प्राणातिपात से विरमण होता है । भगवन्, मैं सर्व प्राणातिपात का प्रत्याख्यान (त्याग करता है- सूक्ष्म या बादर (स्यूल), बस या बादर, जो भी प्राणी हैं उनके प्राणों का अतिपात (घात) मैं स्वयं नहीं करूंगा, दूसरों से नहीं कराऊंगा और प्राणघात करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। यावज्जीवन के लिए तीन करण तीन योग से (मन से, वचन से, काय से) न करूंगा, न कराऊंगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। भगवन्, मैं भूतकाल में किये जीवघात से निवृत्त होता हूं, उनकी निन्दा करता हूं, गर्दा करता हूं और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूं । इस प्रकार हे भगवन्, मैं प्राणातिपात (जीव-घात के ग के लिए उपस्थित हुआ हूं। (१२) द्वितीय मषावादविरमण महाव्रत चौपाई- दुतिय महाव्रत में भगवन्त, मृषावाद से होऊं विरंत । भगवन् मषावाद सब तजू अप्रिय कटुक वचन नहिं कहूं ॥१॥ क्रोध लोभ और भय परिहास, ले इनका निमित्त का खास । बोलू स्वयं न मूठे वैन, नहीं बुलाऊं कर पर-सैन' ॥२॥ १ संकेत ।
SR No.010809
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages335
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size13 MB
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