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________________ द्वितीय विविक्तचर्या चूलिका (१४) मन वच काय कुवृत्ति लबेय, तुरत साधु मन में संभलेय । खींचत जाति - अश्वलगाम, सावधान चाले सुललाम ॥ अर्थ – जहां कहीं भी मन, वचन और काया को दुष्प्रवृत्त होता हुआ देखे, तो धीर वीर साधु को तुरन्त वहीं संभल जाना चाहिए । जैसे कि उत्तम जाति का घोड़ा लगाम को खींचते ही संभल जाता है । चौपाई चौपाई - - (१५) जिसके ऐसा योग रहाय, सावधान सो मुनि कहलाय । संयम से जीवित वह रहे, धीर जितेन्द्रिय उसको कहें ॥ अर्थ - जिस जितेन्द्रिय, धैर्यवान् सत्पुरुष की योग साधना इस प्रकार की होती है, वह लोक में प्रतिबुद्धिजीवी कहा जाता है और वही संयमी जीवन के साथ जीता है । (१६) निज आतम में तन मन धरे । सुरक्ष ॥ दूरहि रहो । जन्म-मरण पावे असुरक्ष, वुलसे छूट यातें मुनि, संयम-रत रहो, विषय-भोगत जिससे होवे बेड़ा पार, पहुँचो शिव सुख के आगार ॥ सदा लौपाईं - होय जितेन्द्रिय रक्षा करे, १६ २८९ अर्थ - अतएव इन्द्रियों को अपने वश में करके साधु को अपने आत्मा की सदा रक्षा करनी चाहिए। क्योंकि अरक्षित आत्मा जाति-पथ (जन्म-मरण के मार्ग ) को प्राप्त होता है और सुरक्षित आत्मा सब दुःखों से मुक्त हो जाता है । ऐसा मैं कहता हूं । द्वितीय विविक्तचर्या चूलिका समाप्त ।
SR No.010809
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages335
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size13 MB
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