________________
छठा मा चारकथा अध्ययन
(३३ – ३४–३५–३६)
सबतें दुसह तेज-जुत आगी, पद्धरी- पूरव अथवा पच्छिमेह होय, दच्छिन उत्तर कित हूं निहार, पावक है प्राननि को प्रहार दीपक वा तापन हेतु याहि,
चौपाई - पाप रूप अरु तीच्छन जोई, सकल अंग आयुध - सम सोई । जलिवो नह चाहत मुनि त्यागी ॥ अध करध वा विदिसा हु कोय | यह परसि करति सब जारि छार ॥ यामें कछु संसय नह निहार । संजति किंचित हू गहे नाहि ॥ दुरगति वर्धन - हार । परिहार ॥
तातें ऐसो दोस लखि, करं अगनि आरंभ को, आजीवन
दोहा
अर्थ-संयमी मुनि कभी भी अग्नि को जलाने की इच्छा नहीं करते हैं क्योंकि यह पापकारी है । यह अन्य शस्त्रों की अपेक्षा अति तीक्ष्ण शस्त्र है और सर्व ओर से दुराश्रय है अर्थात् उसे सहन करना अति कठिन है । यह पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, ऊर्ध्व और अधोदिशा में तथा विदिशाओं में रहे हुए जीवों को जलाती है । निश्चय से यह हव्यवाह (अग्नि) जीवों के लिए भारी आघात पहुंचाती है, इसमें कोई संशय नहीं है । साधु इससे प्रकाश पाने और शरीर तपाने के लिए इसका कुछ भी आरम्भ न करे । यह अग्नि जीव विघातक है, यह दुर्गति-वर्धक महादोष-कारक है, ऐसा जानकर संयमी यावज्जीवन के लिए अग्निकाय के समारम्भ का त्याग करे ।
(३७-३८-३६–४० )
दोहा
पचरी - आरंभ अनिलको ता- समान मानत है पूरन जे खटकाया के जान आहि, लखि बहु सदोस सेवं तालविजन लें पत्र तें, साख-धुननतें विजनौ चहे न औरतें, पद - पूछन कंबल तथा पवन न धेरत इनहु तें, जतन निधारत तातें ऐसो दोस लखि, दुरगति - वर्धन कर अनल आरंभ को, आजीवन
ज्ञानवान | न आहि ॥
होय । लोय ॥
विजवानो मुनि भाजन वसन जु होय ।
सोय ॥
·
हार । परिहार |
१३५
अर्थ — तीर्थंकर भगवन्त वायु के समारम्भ को अग्नि समारम्भ के समान ही पापकारक मानते हैं । यह वायु -समारम्भ प्रचुर सावद्य-युक्त है । अतः षट्काय के रक्षक साधुओं ने वायु का कभी समारम्भ नहीं किया है । इसलिए वे तालवृन्त ( बीजन),