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________________ छठा महाचारकथा अध्ययन (२७-२८-२९) बोहा-मनतें वचत कायतें, हनें न पृथिवी काय । संजति त्रिकरन जोगतें, जो सुसमाधित भाय ॥ हिसत पृथिवी काय कों, हने विविध प्रस अंत । नैन स-बीठ अदीठ जे, आत्रित तास रहंत ॥ तातें ऐसो दोस लखि, दुरगति-वरधन-हार । भूमिकाय आरम कर, आजीवन परिहार ॥ अर्ष-सुसमाधिवन्त साधु मन, वचन, काय रूप त्रिविध योग से और कृत, कारित, अनुमोदन रूप तीन करण से पृथ्वीकाय की हिंसा नहीं करते, दूसरों से नहीं करवाते और करनेवालों की अनुमोदना भी नहीं करते हैं। पृथ्वीकाय की हिंसा करता हुआ मनुष्य उसके आश्रित के चाक्ष ष (आंखों से दिखनेवाले) और अचाक्षुष (आंखों से नहीं दिखने वाले) ऐसे त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है। इसलिए इसे दुर्गतियों का बढ़ानेवाला दोष जान कर साधू यावज्जीवन के लिए पुथ्वीकाय के समारम्भ का त्याग करे । (३०-३१-३२) दोहा-मनतें वचतें कायतें, हने नहीं जलकाय । संजति त्रिकरन जोगते, जे सुसमाधित भाय ॥ हिसत ह जलकाय कों, हन विविध जल-जंत । नैन स-दीठ अदीठ जे, आत्रित तासु रहंत ॥ तातें ऐसो दोस लखि, दुरगति - वर्षन - हार । कर नीर-आरंभ को, आजीवन परिहार ।। अर्थ- सुसमाधिवन्त साधु मनसे, वचनसे, कायसे-इस त्रिविध योग से और कृत कारित अनुमोदना रूप त्रिकरण से जलकाय को हिंसा नहीं करते हैं । जलकाय की हिंसा करता हुआ मनुष्य उसके आश्रित अनेक प्रकार के चाक्षष (दृश्य) और अचाक्षुष (अदृश्य) त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है । इसलिए इसे दुर्गतिवर्धक दोप जानकर मुनिजन यावज्जीवन के लिए जलकाय के समारम्भ का त्याग करे।
SR No.010809
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages335
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size13 MB
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